* स्मरण मजरूह सुलतानपुरी
* प्रस्तुति: डॉ डीएम मिश्र
यह भी एक इत्तिफाक ही कहिये मजरूह का जन्मदिन महात्मा गाँधी से एक दिन पहले है। बड़ा कवि और बड़ा शायर वही होता है जो भाषा के कैमरे में अपने समय और समाज की तस्वीरें खींच लेता है। इसीलिए मजरूह की ये पंक्तियाँ मुहावरा बन गईं, वास्तव में वह गांघीवादी दर्शन के प्रबल समर्थक थे।
रोक सकता हमें ज़िन्दान ए बला क्या मजरूह
हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं
मजरूह ने आजीविका के लिए फिल्मों को ज़रूर चुना , लेकिन वह मूलतः प्रगतिशील क्रान्तिकारी शायर थे । उन्होंने कभी किसी प्रकार का समझौता नहीं किया । न निजी जीवन में , न फिल्मों से ही जुड़ी ज़िंदगी में । भले ही उन्हें तरह - तरह की मुश्किलों से गुज़रना पड़ा ।
सुलतानपुर शहर से तक़रीबन 14 किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव गजेहड़ी में पहली अक्टूबर, 1919 को असरार उल हसन का जन्म हुआ । उनके पिता पुलिस में उपनिरीक्षक थे। उनका नाम सिराजुल हसन खां था। घर की माली हालत ठीक न थी लिहाजा वे अंग्रेजी की पढ़ाई नहीं कर सके। अरबी, फारसी की तालीम पाई। लखनऊ के एक यूनानी कॉलेज से हकीम की डिग्री हासिल की और सुलतानपुर शहर में दवाख़ाना खोल लिया । उनके समकालीन लोग बताते हैं कि यूनानी पद्धति के इलाज़ में भी वह बड़े माहिर थे । मरीज़ की नब्ज़ पकड़कर वह बता देते थे कि उसे क्या बीमारी है । फीस भी काफ़ी कम रखते थे । जिससे ग़रीब लोगों की भीड़ उनके यहां ज़्यादा जमा होती थी । लेकिन इसमें उनका मन कम ही लगता था । कभी - कभी तो अपना क्लीनिक छोडकर जिले में होने वाली नशिस्तों , काव्य गोष्ठियों में शिरकत करने चले जाया करते । लोग उनकी शायरी खूब पसंद करने लगे । अब घीरे - घीरे उनका नाम जिले के बाहर भी पहुंचने लगा। बाहर से भी बुलावा आने लगाा । अब वह मजरूह सुल्तानपुरी नाम से शायरी करने लगे थे । अक्सर वह क्लीनिक बंद करके मुशायरों के पीछे भागते रहते। लोग उनके कलाम पसंद करने लगे तो हौसला बढ़ने लगा। उनकी ख्याति दूर-दूर तक पहुँचने लगी। इन्हीं मुशायरों ने उन्हें मुंबई पहुँचा दिया, जहाँ उनकी मुलाकात जिगर मुरादाबादी से हुई.. जो उनसे बहुत प्रभावित हुए। दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई। वहाँ पर उनकी शायरी सुनकर मशहूर फिल्म प्रोड्यूसर ए0आर0 कारदार ने अपनी फिल्म के लिए मजरूह से गीत लिखने का आग्रह किया, पर, उन्होंने मना कर दिया।
बाद में जिगर साहब के कहने पर हामी भर ली। 1945 में मजरूह ने पहला फिल्मी गीत लिखा- ‘जब उसने गेसू बिखराए बादल आए झूमके।’ यह गीत हिट हुआ ! इसकी धुन सुप्रसिद्ध संगीतकार नौशाद ने बनायी थी। फिर ‘शाहजहां’ फिल्म के लिये और गीत लिखे। जिनमें - ‘जब दिल ही टूट गया / हम जी के क्या करेंगे’ इस गीत को आवाज़ दी थी उस समय के सबसे बड़े गायक के0एल0 सहगल ने। फिर तो फिल्मों का एक ऐसा लंबा सिलसिला चल निकला जो उनकी अंतिम सांस तक थमा नहीं। हर डायरेक्टर-प्रोड्यूसर की जुबान पर घूम फिर कर एक ही नाम ‘मजरूह सुल्तानपुरी’ आ जाता। फिल्म ‘दोस्ती’, ‘फिर वही दिल लाया हूँ’, ‘कारवां’, ‘यादों की बारात’, ‘हम किसी से कम नहीं’, ‘पाकीजा’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘अभिमान’ सहित न जाने कितनी ऐसी फिल्में है जो लोगों की उंगलियों पर हैं। इसे अनगिनत कहा जाए तो गलत न होगा। इन फिल्मों की संख्या दस-बीस नहीं साढ़े तीन सौ से ऊपर है। उन्होंने आखिरी गीत लिखा ‘हम तो मुहब्बत करेगा’ । उस जमाने का शायद ही कोई गायक, गायिका या संगीतकार रहा हो जो उनके गीतों को गाकर या धुन बनाकर हिट- न हुआ हो। उनके समकालीन गीतकारों में साहिर लुधियानवी, शकील बदायूंनी, हसरत जयपुरी, शैलेन्द्र आदि थे, जिनसे उनकी गाढ़ी दोस्ती रही।
लेकिन वह मूलतः अदबी शायर थे । उर्दू अदब में वह फैज साहब से बढ़कर प्रगतिशील और क्रान्तिकारी चेतना के शायर माने जाते हैं । एक प्रकार से देखा जाय तो फ़ैज़ साहब से पहले उन्होने प्रगतिशील चेतना की शायरी शुरू कर दी थी। वह "एक्टीविस्ट शायर'' थे । उन्होंने प्रगतिशील संघ का भी गठन किया था । अभिनेता बलराज साहनी भी उसमें सदस्य थे। वास्तव में मजरूह का फलक बहुत विस्तृत था । आप इसी से उनका मूल्यांकन कर सकते हैं । जब फिल्मों में कवि प्रदीप लिख रहे थे, ‘‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’’..., हिंदी के राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी लिख रहे थे- ‘चल पड़े जिधर दो डगमग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर’ तो वह लिख रहे थे- ‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया’। याद कीजिए गांधी की दांडी यात्रा । यह भी एक इत्तिफाक ही कहिये मजरूह का जन्मदिन महात्मा गाँधी से एक दिन पहले है। बड़ा कवि और बड़ा शायर वही होता है जो भाषा के कैमरे में अपने समय और समाज की तस्वीरें खींच लेता है। इसीलिए मजरूह की ये पंक्तियाँ मुहावरा बन गईं। वास्तव में वह गांघीवादी दर्शन के प्रबल समर्थक थे । मगर यही प्रगतिशील शायर आजादी के बाद यह भी कहने को मजबूर हो गया- ‘अम्न का झंडा इस धरती पर किसने कहा लहराने न पाए/ यह भी कोई हिटलर का है चेला, मार ले साथी जाने न पाये/मन में जहर डालर के बसा के फिरती है भारत की अहसा /खद्दर की केंचुल को पहन कर, ये केंचुल लहराने न पाये।’ पंडित नेहरू प्रधानमंत्री थे। इस शेर को लिखने के जुर्म में मजरूह को दो साल की जेल हुई। कहा गया माफी मांग लो छोड़ दिये जाओगे। खुद्दारी आड़े आ गई। मजरूह ने हार नहीं मानी ! जब तक वह जेल में रहे उनके घर का खर्चा राजकपूर उठाते रहे ! लेकिन खैरात उनसे भी नहीं ली । इस अवधि में भी राजकपूर से भी उन्होने वही पैसे लिए जो उनके गीत के एवज में बनते थे । जेल से रिहा हुये तो फिर लिखा-‘सुतूने दार पे रखते चलो सरों के चिराग / जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले।’ जेल की यात्रा अभिनेता बलराज साहनी ने भी उनके साथ की थी। वह भी पीडब्लूओ (प्रगतिशील लेखक संघ प्रोग्रेसिव डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन) के सदस्य थे। मजरूह की इस गजल से आप अनुमान लगा सकते हैं कि वह उच्चकोटि के प्रगतिशील शायर थे -
हमको जुनूँ क्या सिखलाते हो, हम थे परीशाँ तुमसे जियादा
चाक किये हैं हमने अजीजो चार गरीबाँ तुमसे जियादा
हम भी हमेशा कत्ल हुए और तुमने भी देखा दूर से लेकिन
यह न समझना हमको हुआ है जान का नुक्साँ तुमसे जियादा !
मजरूह अक्सर मुशायरों में अपनी यह पसंदीदा ग़ज़ल सुनाया करते थे। उनका कंठ भी बहुत सुरीला और मधुर था । मात्र 70-80 गजलें लिखकर अदब की दुनिया में मजरूह ने वो मुकाम हासिल किया जो शायद ही विरलों को नसीब होता है।
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लेखक डॉ डीएम मिश्र |
अदबी शायरी की दुनिया में फ़ैज़, जिगर, फ़िराक़, जोश आदि बड़े शायरों के बीच उनकी खासी पैठ थी। यही कारण है कि मजरूह जितने सुने जाते हैं , उतने ही पढ़े भी जाते हैं। मजरूह के अलावा शायद ही कोई फिल्मी गीतकार हो जिसका अदब में इतना ऊँचा मुकाम हो या अदब में शायद ही ऐसा कोई शायर या कवि हो जिसे फिल्म की दुनिया में इतना नाम मिला हो। इसलिये दोनों जगह वे सम्मानित हुये। उनकी अदबी शायरी के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने इकबाल सम्मान, गालिब सम्मान, महाराष्ट्र सरकार ने संत ज्ञानेश्वर सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार ने हिंदी-उर्दू साहित्य अवार्ड दिया तो फिल्मों में अनेक सम्मानों के साथ-साथ फिल्म फेयर पुरस्कार और भारत सरकार ने अपना सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के (1993) से उन्हें नवाजा। पर, मजरूह कहते थे कि सबसे बड़ा पुरस्कार तो उन्हें अवाम से मिला, जिसने उन्हें सुना, सराहा और गाया। अवधी लोकगीतों के संस्पर्श से उनके फिल्मी गीत पूरे हिंदीभाषी क्षेत्रों में चर्चित हुए । उनकी अदबी शायरी जहां बेजोड़ है वहीं फिल्मी गीतों का कोई जवाब नहीं। क्योंकि दोनों में अपनी मिट्टी और आबोहवा की महक है ! सुलतानपुर गजेहड़ी से शुरू हुई मजरूह की जीवन यात्रा 24 मई, 2000 को मुंबई महानगरी में पूर्ण हो गयी। खत्म हो गया उनका दैहिेक सफ़र लेकिन एैसे लोग अजर अमर होते है कभी मरते नही । वह लोगों के दिलों में बसते हैं।
लेखक संपर्क: 7985934703
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