कविता/ रोटियां/ विभूति नारायण ओझा
रोटियां तो हम भी बना लें
पर कहां से लायें ,
वह स्वाद और खुशबू
जो मिलती है मां के हाथों की बनी रोटियों में
मां के हाथों की बनी रोटियां
वासी भी हों तो भी
उनमें कम नहीं होती ताज़गी और मिठास
मां की उंगलियों में वह जादू होता है
जो न खुद की उंगलियों में है
न किसी शेफ ( बावर्ची ) की
मां रोटी बनाती है
लेकिन खिलाती पहले दूसरों को है
और बच्चों को तो
अपने हाथ से खिलाती है
मां का पेट दूसरो को
खिलाकर ही भर जाता
खुद तो खाली मुंह जुठारती है।
पेट कहीं भी भर लूं
कभी भी भर लूं
लेकिन स्वाद मां के हाथों की बनी रोटियों में ही है
घर से बाहर बार - बार याद आती हैं
मां के हाथों की बनी रोटियां
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प्रस्तुति:विभूति नारायण ओझा
संप्रति: संपादक, पतहर पत्रिका
मो. 9450740268
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