पतहर

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प्रयोगवाद का उदय और सामाजिक चित्रण

प्रस्तुति: डॉ रणजीत कुमार सिन्हा

प्रयोग का अर्थ हमारे हिंदी के तथाकथित आलोचक अंग्रेजी के Experimentalism से जोड़ कर चर्चा करते हैं।साधारण प्रयोग का अर्थ है नयी अथवा पुरानी बात को नये ढंग से कहना।इस दृष्टि से प्रत्येक रचना प्रयोगशील है।लेकिन प्रयोगवाद शब्द प्रगतिवाद शब्द की तरह सरलीकरण  हो गया।हिन्दी साहित्य में प्रगतिवाद शब्द ,सामान्य प्रगति का परिचायक न होकर साम्यवादी विचारधारा के पोषक काव्य का परिचायक बन गया,ठीक उसी प्रकार प्रयोगवाद भी विकासोन्मुख तथा कल्याणकारी काव्य का परिचायक न रहकर एक विशेष काव्यवाद के रुप में प्रसिद्ध हो गया।1943 ई.तारसप्त के प्रकाशन से शुरु हुआ।सबसे मजेदार बात है कि प्रयोगवाद के कवियों कभी भी न तो प्रयोगवाद की चर्चा की और न नवीवता को काव्य का साथ बताया।सिर्फ नकेनवादियों ने ही(नलिन विलोचन शर्मा,केसरी कुमार और नरेश मेहता)आदि ने दस सूत्री विधान की घोषणा करके इसे प्रयोगवादी होने का घोषणा कर दिया।1943 ई.में प्रकाशित प्रथम सप्तक में -अज्ञेय,मुक्तिबोध,गिरजा कुमार माथुर,प्रभाकर माचवे,नेमिचन्द्र जैन,भरत भूषण अग्रवाल तथा डॉ.रामविलास शर्मा आदि कवियों को अज्ञेय ने अन्वेषी या राही करार दिया।
डॉ.रामविलास शर्मा ने प्रयोगवाद की शुरुआत 1943 से न मानकर 1947 से मानते हैं।जबकि 1946 ई.में नया साहित्य में शमशेर बहादुर सिंह इस प्रयोगवाद पर चर्चा करते नज़र आते हैं।1952 ई.में कल्पना पत्रिका में प्रभाकर माचवे का लेख'हिन्दी की प्रयोगवादी कविता'शीर्षक से प्रकाशित हुआ।और खुद को प्रयोगवादी कवि भी घोषित किया।अज्ञेय ने तीन अन्य सप्तक निकाले तथा सप्तक परम्परा के द्वारा प्रयोगवादी काव्य के प्रवर्तक कहलाये।
मूलतः प्रयोगवाद अभिजात्य वर्ग का काव्य ही नज़र आता है जो वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के ह्रास की आशंका से त्रस्त और चद्भ्रान्त है। इसमें आमजन की जगह विशेषजन को अधिक महत्व दिखता है।
डॉ.धर्मवीर भारती की यह आत्मस्वीकृति प्रयोगवाद का सार्थक मूल्यांकन प्रस्तुत करती है--

"वाणी इतनी खोखली हुई,
ज्यों बच्चों का गिलबिल गिलबिल।
सब अर्थ और उत्साह छिन गया जीवन का
जैसे जीने के पीछे कोई लक्ष्य नहीं
दिल की धड़कन भी इतनी बेमानी।"
                  यह काव्य पंक्तियाँ हिन्दी का प्रयोगवादी काव्य की नयी चेतना का द्योतक है।
आचार्य  नन्ददुलारे वाजपेयी तथा अन्य आलोचक प्रयोगवादी काव्य तथा प्रतीक को भारतीयता से रहित विदेशी काव्य चिंतन या यूरोपीय काव्य चिंतन मानते नज़र आये।नन्ददुलारे वाजपेयी ने तो यहाँ तक कह डाला--"इनमें से अनेक रचनायें भोंड़े व्यंग्य की सृष्टि करती है,उनमें अर्थ परम्परा का निर्वाह नहीं होता,पूरी रचना को पढ़ लेने पर भी भावान्वित का बोध नहीं होता तथा इसकी विषय वस्तु भी सामाजिक,नैतिक एवं चारित्रिक दृष्टि से अच्छा प्रभाव नहीं डालती।साथ ही इसमें जीवन के प्रति किसी रचनात्मक सृष्टि,कर्मण्यता और क्रियाशीलता का भी अभाव है। 
    प्रयोगवादी कविता में अत्यधिक बौद्धिकता तथा अनुभवहीनता से उत्पन्न दुरूहता के कारण कवितायें अत्यन्त और नीरस होती गयी---

"आत्मा को न मानू।
तुम्हें न पहचानू।
तुम्हारी त्वदीयता को स्थिर शून्य में उछाल दूं।
तभी
हाँ
शायद तभी।"

प्रयोगवादी कवियों ने यथार्थ वर्णन के नाम पर मानव और पशुओं से संबंधों का अनेकानेक चित्र प्रस्तुत किए।चाय की प्याली,चप्पल,कुत्ता,बेंटिग रुम,नमक,पार्क की बेंच,कंकरीट,आदि को कविता का विषय वस्तु बनाया।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता देखें--

"बैठ कर ब्लेड से नाखून काटें,
बढ़ी हुई दाढ़ी में बालों के बीच खाली जगह छाँटें
सर खुजलायें,जम्हुआयें।"

प्रयोगवादी कविता में व्यष्टि की अभिव्यक्ति को अत्यधिक महत्व प्रदान किया गया।कोई इसे नवीन काव्य की खोज कहा तो किसी ने इसको आत्मरति कहा।प्रयोगवादी कवियों ने अपनी कविताओं में वैयक्तिकता का उभार बहुत अधिक किया है।भारत भूषण की कविता में देखें--

"साधारण नगर में
एक साधारण घर में
मेरा जन्म हुआ।
बचपन मेरा अति साधारण
साधारण खान पान,
साधारण वस्त्र पाये।"

प्रयोगवादी कवि सिर्फ और सिर्फ वर्तमान को ही सब कुछ मानता है।न तो अतीत से प्रेरणा लेता है,न भविष्य के प्रति सचेत।प्रयोगवादी कवि जीवन से असन्तुष्ट और निराश है।वह वर्तमान में ही सब कुछ पाना और भोगना चाहता है।

"आओं हम उस अतीत को भूलें,
और आज की अपनी रंग-रंग के अन्तर को छू लें।
छूलें इस क्षण,
क्योंकि कल वे नहीं रहे।
क्योंकि कल हम नहीं रहेंगे।"

प्रयोगवादी कविता-
शहरी जीवन के घिनौने दृश्य,नागरिक सभ्यता के प्रति घृणा उत्पन्न,आस्था और सौन्दर्य चेतना को भी विकृत रुचि के कारण,कुरुप,असुंदर और भद्दा बना दिया है।

"मूत्र सिंचित मृत्तिका के वृत्त में तीन टांगों पर खड़ा नत ग्रीव
धैर्य धन गदहा
लगता है कहीं ठौर नहीं
आज का मनुष्य
गर्भ से धक्के देकर निकाला हुआ ऋषि पुत्र।"

प्रयोगवादी कवि बहुत हद तक वातस्यायन या फ्रायडीय दर्शन के अनुयायी नज़र आते हैं।प्रलाप करते भी नज़र आते हैं--
"आह सारी रात
चाय रख दो कागजों पर
या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी
ई ईश्वर,उ उल्लू,
चल हट बेटा।"

प्रयोगवादी कवियों ने वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग प्रयोग बहुत अधिक किया।यथा ऑपरेशन थियेटर,मौत का सिगनल,मिल का भोंपू,कैमरे की लेंस की आँखे आदि।बहुत हद तक इन प्रयोगवादी कवियों के प्रतीक विधान फ्रायड दर्शन से प्रेरीत है तथा ये दमित इच्छाओं को प्रकट करता है--
"प्यार का बल्ब फ्यूज हो गया है।
कोठरी में दीप की लौं सेंकती ठंडा अंधेरा।
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।"
      मूलतः प्रयोगवादी कविता में भावना है पर हरेक भावना के सामने एक प्रश्न चिन्ह है,इसे आप बौद्धिकता कहे या प्रयोगशाला--प्रयोगवाद ने हिंदी काव्य  साहित्य को समृद्ध करते हुए नवीन चेतना तथा आधुनिकता से समृद्ध करता नज़र आता है।
डॉ रणजीत कुमार सिन्हा

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