पतहर

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जीवन के यथार्थ से परिचित कराता है भक्तिकाल : प्रो.सुरेन्द्र

रचना हमेशा एक वैकल्पिक समाज रचने के लिए होती है। कवि को दूसरा ब्रह्मा कहा जाता है। रचना का काम है व्यवस्था पर सवाल उठाना और नई व्यवस्था बनाने का काम करना-प्रो चितरंजन मिश्र

 * भक्ति काव्य धर्म और जाति को तोड़ता है। आज के समय में दोनों ताकतें ताकतवर हो गई हैं। इसे तोड़ना अनिवार्य है। प्रेम सामंती ढांचे को तोड़ता है। भक्तिकाल की कविता उपदेश देने की कविता नहीं है- डॉ मनोज कुमार सिंह

* पूंजीवाद आत्मिक विपन्नताओं का युग है। भक्तिकाल में संवाद के अनेक केंद्र मौजूद थे-प्रोफेसर अवधेश प्रधान 

 * प्रोफेसर आशीष त्रिपाठी ने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि आज विचारहीन दुनिया बनाने की कोशिशें हो रही है। ऐसे में भक्ति काल के कवियों पर विचार करना बड़ी उपलब्धि है। 

(विभूति नारायण ओझा)
गोरखपुर। भक्ति आंदोलन देशव्यापी धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलन था। इसने पीड़ित जनता को संबल प्रदान किया। भक्तिकाल ने जाति के बंधन को तोड़ने का काम किया।
सिद्धार्थ विश्वविद्यालय सिद्धार्थ नगर के कुलपति प्रोफेसर सुरेंद्र दुबे ने उक्त बातें कहीं। वे गोरखपुर विश्वविद्यालय हिंदी विभाग एवं साहित्य अकादमी नई दिल्ली के तत्वाधान में संपन्न दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन समारोह को विश्वविद्यालय के संवाद भवन में संबोधित कर रहे थे।
संगोष्ठी को संबोधित करते हुए प्रो सुरेंद्र दुबे
उन्होंने कहा कि आराधना का सर्वोत्तम स्वरूप भक्ति है। भक्ति काल की कविता में जीवन का यथार्थ दिखता है। सभी मनुष्यों को बराबर की दृष्टि से देखना इस कविता की खास प्रवृत्ति है।
दूसरा दिन प्रथम सत्र :
    संगोष्ठी के दूसरे दिन प्रथम सत्र में भक्ति साहित्य शोध की नई दिशाएं विषय पर खुले सत्र का आयोजन किया गया। जिसमें कुल 29 शोध पत्र आए और 12 शोध पत्रों का वाचन छात्र-छात्राओं द्वारा किया गया। सबने अपने अपने नजरिए से भक्ति साहित्य को देखने की कोशिश की। इस सत्र का संयोजन हिंदी विभाग के डॉ नागेश राम त्रिपाठी ने किया।
द्वितीय सत्र- भक्ति साहित्य : वैकल्पिक समाज का स्वप्न

प्रो चितरंजन मिश्र
इसके पश्चात आज के द्वितीय सत्र में भक्ति साहित्य : वैकल्पिक समाज का स्वप्न विषय पर संयोजक प्रो चितरंजन मिश्र की अध्यक्षता में गंभीर विमर्श हुआ।इस मौके पर उन्होंने कहा कि रचना हमेशा एक वैकल्पिक समाज रचने के लिए होती है। कवि को दूसरा ब्रह्मा कहा जाता है। रचना का काम है व्यवस्था पर सवाल उठाना और नई व्यवस्था बनाने का काम करना। उन्होंने कहा कि नैतिक आक्रोश सभी भक्त कवियों में था। 
प्रोफेसर मिश्र ने लोहिया के हवाले से कहा कि रामचरित मानस में मोती भी है और कूड़ा भी। जहां राम का प्रेम, भ्रात्रृत्व आदि गुड मोती है वहीं वर्णाश्रम कूड़ा है। उन्होंने स्थापित किया कि किसी भी कविता में मोती और कूड़ा दोनों होता है। कविता आशय में होती है। उन्होंने कहा कि कविता को कवि की कल्पना की तरह पढ़ना चाहिए। तुलसीदास की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि तुलसी उस समाज की बात करते हैं जहां विषमता न हो। राम उस आदर्श के राजा हैं जिसमें विषमता समाप्त हो जाती है। उन्होंने कहा कि तुलसी के राम नई मर्यादाओं की रचना करते हैं, पुरानी मर्यादाओं की नहीं। उन्होंने कहा कि भक्तिकाल के कवि जनता को प्रभावित करने वाले कवि थे।
   संगोष्ठी को संबोधित करते हुए दिल्ली से आए डॉ मनोज कुमार सिंह ने कहा कि भक्ति काव्य प्रेम की कविता है। भक्ति काव्य धर्म और जाति को तोड़ता है। आज के समय में दोनों ताकतें ताकतवर हो गई हैं। इसे तोड़ना अनिवार्य है। प्रेम सामंती ढांचे को तोड़ता है। भक्तिकाल की कविता उपदेश देने की कविता नहीं है। भक्तिकाल ने विवेकवान व्यक्तियों को पैदा किया। डॉ सिंह ने कहा कि रैदास व कबीर दोनों कवि वैकल्पिक समाज की मांग करते हैं। उन्होंने कहा कि ईश्वर प्रतिमान नहीं है, प्रतिमेय है।हमारी परंपरा व कविता में प्रगतिशील तत्व मौजूद है।
कानपुर से आए कवि व आलोचक डॉक्टर पंकज चतुर्वेदी ने कहा कि निर्गुण अमूर्तन है, सपना है, जबकि सगुण अमूर्तन को मूर्त करने की चेष्टा है। उन्होंने कहा कि अत्याचारी शासक लोगों के ऊपर मॉडल थोपता है जबकि कविता मनुष्य को स्वतंत्र करती है। तुलसी की कविता जहां रामराज्य का मॉडल देती है वही कबीर की कविता हमें दूसरी दुनिया में पहुंचाती है। कबीर का समाज और आज के समाज की हमें तुलना करनी होगी, विचार करना होगा।
अंतिम और पांचवां सत्र
संगोष्ठी के अंतिम और पांचवें सत्र भक्ति साहित्य समकालीन पाठ विषय पर बोलते हुए काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आचार्य प्रोफेसर अवधेश प्रधान ने कहा कि भक्ति काव्य एक ऐसी दुनिया में ले जाता है जो मानता है कि यहां सत्ताओं का महत्व नहीं है, विचारों का महत्व है। उन्होंने कहा कि भक्ति साहित्य ने संवाद का माहौल बनाया था। प्रोफेसर प्रधान ने कहा कि अंग्रेजों के आने तक संवाद था। उन्होंने कहा कि पूंजीवाद आत्मिक विपन्नताओं का युग है। भक्तिकाल में संवाद के अनेक केंद्र मौजूद थे।
 प्रोफेसर प्रधान ने कहा कि विचारों की सत्ता पर काम करते हुए समाज परिवर्तन का काम किया जा सकता है। उन्होंने युद्ध पर चर्चा करते हुए कहा कि हथियारों का जवाब हथियारों से नहीं दिया जा सकता। हमें भक्ति काल के विचारों से प्रेरणा लेकर हथियारों से लड़ना होगा। भक्ति काल हमें संसार को देखने की दृष्टि देता है। भक्ति काव्य सांस्कृतिक विरासत है। 
बीएचयू से आए प्रो मनोज कुमार सिंह ने कहा कि भक्ति काल के कवियों ने सामंतवाद के खिलाफ जमकर आवाज उठाई थी। कबीर, हिंदू मुसलमान के पक्ष में नहीं थे, मनुष्यता के पक्ष में थे। उन्होंने दोनों संस्कृतियों को जोड़ने का काम किया था।
 प्रोफेसर आशीष त्रिपाठी ने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि आज विचारहीन दुनिया बनाने की कोशिशें हो रही है। ऐसे में भक्ति काल के कवियों पर विचार करना बड़ी उपलब्धि है। उन्होंने कहा कि भक्ति काल हमारी जीवन्त परंपरा का हिस्सा है। जब हम उलझन में होते हैं तो यह हमें रास्ता दिखाता है। 
उन्होंने समकालीन चुनौतियों की चर्चा करते हुए कहा कि सांप्रदायिक फासीवाद, दलित, स्त्री ऐसे प्रश्न हैं जिनका समाधान भक्ति काल की कविता के पास है। हम जो कहना चाहते हैं वही कहें, यह प्रेरणा हमें संत कवियों से लेनी होगी।
समापन सत्र :
संगोष्ठी के समापन सत्र का संचालन संयोजक प्रोफेसर चितरंजन मिश्र ने किया। स्वागत हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर अनिल कुमार राय ने तथा आभार आयोजन सचिव प्रोफेसर विमलेश कुमार मिश्र ने किया। 
स्वागत वक्तव्य देते प्रोफेसर अनिल राय
संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों के संचालन में प्रोफेसर रामदरश राय, प्रोफेसर दीपक प्रकाश त्यागी, डॉ प्रेमव्रत तिवारी, डॉ नागेश राम त्रिपाठी शामिल रहें। 
कविता प्रस्तुत करती अनीता अग्रवाल
संगोष्ठी के समापन के पश्चात प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र वितरित किए गए तथा एक कवि गोष्ठी प्रोफेसर अनंत मिश्र की अध्यक्षता और साहित्य अकादमी के संपादक अनुपम तिवारी के संयोजन में आयोजित की गई। जिसमें कुमार अनुपम, पंकज चतुर्वेदी, अनीता अग्रवाल, श्रीधर मिश्र, महेश अश्क, देवेंद्र आर्य आदि शामिल रहें।

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