संत साहित्य व संतों द्वारा बताए रास्ते पर चलकर देश और समाज को सुंदर बनाना होगा-कुलपति
* भक्तिकाल ईश्वर की अवधारणाओं के पुनराविष्कार का काल है। ईश्वर तुलसी, सूर, कबीर, जायसी की कविता से निकला है। जो कविता ईश्वर को भी फिर से खोज सकती है, उसके निहितार्थ को हमें खोजना होगा-प्रो चित्तरंजन मिश्र
प्रस्तुति: विभूति नारायण ओझा/
गोरखपुर। आज की दुनिया तेजी से कूड़ा होती जा रही है। दस साल पहले की टेक्नोलॉजी दस साल बाद किसी काम की नहीं रह जाती। शब्द की दुनिया हजारों साल बाद भी काम की रहेगी। अक्षर हमारे लिए महत्वपूर्ण है, कबीर के जमाने की चीजें काम की नहीं है लेकिन तुलसी, सूर, कबीर, जायसी की कविता सैकड़ों वर्षो बाद भी हमारे काम की हैं और आगे भी रहेगी।
उक्त बातें प्रोफेसर चितरंजन मिश्र, संयोजक हिंदी परामर्श मंडल, साहित्य अकादमी ने कहीं। वे आज दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर के संवाद भवन में साहित्य अकादमी नई दिल्ली और हिंदी विभाग,गोरखपुर विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित भक्ति साहित्य एवं भारतीय समाज विषयक संगोष्ठी में बतौर संयोजक बोल रहे थे।
आचार्य मिश्र ने कहा कि भारत में भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय था। दार्शनिक चिंताएं भी बहुत हैं। जनता के जीवन तक कविता ही जाती है, दर्शन नहीं। उन्होंने कहा कि विचार राजधानी में रहते हैं जबकि कविता गांव में लिखी जाती है। भक्तिकाल परंपरा का महान काल है। सभी अवधारणाओं पर विचार इस काल में किया गया है।
प्रो मिश्र ने कहा कि भक्तिकाल ईश्वर की अवधारणाओं के पुनराविष्कार का काल है। ईश्वर तुलसी, सूर, कबीर, जायसी की कविता से निकला है। जो कविता ईश्वर को भी फिर से खोज सकती है, उसके निहितार्थ को हमें खोजना होगा।
उन्होंने कहा कि हमारा समय संकटों का समय है।बर्बर और पिछड़े समाज में कबीर जो बात कह रहे थे, आज के लोकतांत्रिक समाज में अगर बोलते तो देशद्रोही हो जाते।
संगोष्ठी में मुख्य वक्तव्य देते हुए प्रो रामदेव शुक्ल ने कहा कि भक्ति काल का समाज मूल्यों का समाज था। भक्ति काल में भी संकट मौजूद थे। आज का समाज आधुनिक हो गया है। भक्ति और भक्त की चर्चा करते हुए आचार्य शुक्ल ने एक उदाहरण देकर समझाया कि जो शास्त्र नहीं पढ़ सकता वह कवि हो जाता है, जो कविता नहीं कर सकता, वह खेती करने चला जाता है। जो खेती भी नहीं कर सकता वह भक्त हो जाता है। समाज ने भक्त कवियों को बनाया, भक्त ने नहीं। वहां सब को समान स्थान मिला था। भक्ति काल का समाज अद्भुत समाज था। समाज और साहित्य से जो मूल्य आते हैं वह संशोधित होते रहेंगे। भारतीय समाज व भक्ति काव्य दोनों अपने ढंग से विलक्षण हैं तथा अतुलनीय है।
संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफ़ेसर वीके सिंह ने कहा कि भक्ति साहित्य हमें प्रेरणा देता है। आज का भौतिकवादी युग परिवार व समाज को अलग थलग कर दिया है। हमें संत साहित्य व संतों द्वारा बताए रास्ते पर चलकर ही देश और समाज को सुंदर बनाना होगा। उन्होंने इस कार्यक्रम के लिए सभी को शुभकामनाएं दी।
संगोष्ठी के पहले दिन दो सत्रों में गंभीर विमर्श हुए।प्रथम सत्र में भक्ति साहित्य की पृष्ठभूमि विषय पर जहां चर्चा हुई वहीं दूसरे सत्र में भक्ति साहित्य - लोक और शास्त्र पर वक्ताओं ने अपने विचार रखे।
भक्ति साहित्य की पृष्ठभूमि विषय पर बोलते हुए गोरखपुर विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर केसी लाल ने कहा कि भक्ति साहित्य ऐसा साहित्य है जहां सब के लिए बातें हैं। भक्ति साहित्य का अध्ययन करते समय हमें सम्यक बोध की जरूरत है। उन्होंने कहा कि भक्त तो बहुत मिल जाते हैं। भक्त तत्व के ज्ञाता नहीं मिलते, चमत्कार करने से कोई भक्त नहीं बन जाता। साहित्य के अध्ययन के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण जरूरी है। उन्होंने कहा कि भक्ति साहित्य को समझने के खतरे हैं। भक्ति साहित्य अपने समय की चुनौतियों का सामना करने वाला साहित्य है। उस समय दबी हुई जनता को भक्तों का संबल मिला था। लोकजीवन की यह धारा है जो सत्ता के विरुद्ध काम किया। समाज में भक्तिकाल की क्रांतिकारी भूमिका थी।
प्रथम सत्र को संबोधित करते हुए प्रोफेसर जनार्दन ने कहा कि धर्म के नाम पर बनने वाली कुछ चीजें बनाती हैं तो बिगाड़ती भी हैं। भक्ति काल में बनाने बिगाड़ने की बात भी हुई। उन्होंने कहा कि भक्त कवि अपनी बात कहने से हिचकते नहीं थे, आज हम हिचकने में घिरे हैं। संतो ने अपने समय का काम किया। उन्होंने कहा कि भक्ति का संबंध धर्म और भगवान से नहीं होना चाहिए। प्रोफेसर जनार्दन ने आगे कहा कि भक्ति पर विचार करिए तो राजा पर विचार करिए और राजा पर विचार करिए तो भक्ति पर विचार करिए। ब्रह्म को बताने वाला राजा ही है।
संगोष्ठी में बात रखते हुए पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग से आए प्रो दिनेश कुमार चौबे ने पूर्वोत्तर राज्य के साहित्य की चर्चा की। उन्होंने बताया कि उनके यहां शंकर देव की प्रतिष्ठा तुलसी, कबीर से अधिक है। प्रो. चौबे ने कहा कि भक्ति के लिए श्रद्धा की आवश्यकता होती है। भक्ति साहित्य की पृष्ठभूमि पर विचार करने की आज आवश्यकता है।इस सत्र का संयोजन एवं संचालन रामदरश राय ने किया।
भक्ति साहित्य- लोक व शास्त्र विषय पर दितीय सत्र में बोलते हुए आचार्य अनंत मिश्र ने कहा कि कविता और सत्ता एक दूसरे के विपरीत होते हैं। साहित्य हमेशा से प्यार के पक्ष में रहा है जबकि सताएं कठोरता के पक्ष में रही हैं। साहित्य हमेशा मुलायमियत के पक्ष में रहा है। उन्होंने कविता की चर्चा करते हुए कहा कि आंधियों में पेड़ उखड़ जाते हैं,दूब बची रहती है। भक्ति काल की कविता दूब के समान आज भी बची हुई है। उन्होंने लोक व शास्त्र की चर्चा करते हुए कहा कि लोक के गर्भ से ही शास्त्र व सभ्यता का जन्म हुआ होगा। समय बदलता है तो शास्त्र भी बदलता है। उन्होंने कहा कि भक्ति साहित्य ने जो हमें दिया है उसे देखना होगा, क्योंकि आज हम बाहर से समृद्ध हो रहे हैं और अंदर से विपन्न बनते जा रहे हैं। लोक से शास्त्र है,शास्त्र से लोक नहीं। शास्त्र अनुशासन है। जब प्रश्न नए होते हैं तो उत्तर भी नया करना पड़ता है। भक्ति काव्य एक दर्पण है। प्रो मिश्रा ने कहा कि शास्त्र को जमीन पर लाने का काम भक्ति काव्य ने किया। उन्होंने कहा कि समय की अपनी भाषा होती है । आज हम सत्ता की भाषा में बोल रहे हैं। जनता की भाषा बोलने का साहस नहीं है। हमें भक्ति आंदोलन व संतों को समझने की जरूरत है।
संगोष्ठी को संबोधित करते हुए दिल्ली से आए डॉक्टर बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि लोक और वेद का अनुमोदन भक्ति कविता में होता है। तुलसी लोकवादी नहीं है। उन्होंने कहा कि काल और जनता प्रमाणिक होती है। उन्होंने कवि गंग को बढ़ा क्रांतिकारी कवि बताया। उन्होंने कहा कि ज्ञानी लोग सबसे पहले , तपस्वी लोग दूसरे, योद्धा लोग तीसरे और सबसे अंत में प्रतिबद्ध कवि फिसलते हैं।
उन्होंने कहा कि वहीं साहित्य जनता के बीच पैठ बना पाता है जो न्याय के सवाल से संबद्ध हो ।आपका लिखा हुआ जनता के समझ में आना चाहिए ,चरित्र बेदाग होना चाहिए। भक्ति काल की कविता न्याय के सवाल को खड़ा करती। प्रगतिवाद ने अन्याय की ठीक-ठीक पहचान की, जो ताकत भक्ति काल में थी वही प्रगतिवाद में है। भक्ति काल में अन्याय से छुटकारा पाने की छटपटाहट देखी जा सकती है।
गोरखपुर विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के आचार्य रहीं प्रोफ़ेसर मंजू त्रिपाठी ने तुलसीदास और उनके रामचरितमानस को समाज के लिए उपयोगी साहित्य बताया। उन्होंने रामचरितमानस के माध्यम से भक्ति काल को समझाने की कोशिश की।
संगोष्ठी में अतिथियों का स्वागत हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर अनिल कुमार राय, संचालन प्रोफ़ेसर विमलेश कुमार मिश्र तथा आभार ज्ञापन अनुपम तिवारी संपादक साहित्य अकादमी ने किया। संगोष्ठी में छात्र छात्राओं सहित विभिन्न विद्वान, शिक्षक, रंगकर्मी, साहित्यकार और शहर के गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति रही।
0 Comments