-हेमंत उपाध्याय-
गाॅव की तलाश (कविता )
धूप में भटककर ढॅूढता रहा अपना गाॅव,
उजड़ गए सभी तरु मिली न कही छाॅव।
नदी सूखी पड़ी थी,
नाव उल्टी पड़ी थी ।
चटक गए मेरे पाॅव ,
मिला न मुझे मेरा गाॅव ।
जहाॅ बंधती थी गाय-भैस , दूध-दही के साथ मिलता था प्यार,
वहाॅ आज देशी-विदेशी शराब का हो रहा है,दिन रात व्यापार।
नदी की चैपाटी पर बैठते थे सज्जन चार,
वहाॅ पनिहारी के साथ हो रहा अत्याचार।
जिस चैपाल पर बूढे चैपड़ और, बच्चे खेलते सार,
उस पर खेल रहे तीन पत्ते और लूट रहे चार यार।
दोस्तों में सौहार्द्र नहीं रहा हो रही आपस में मारा मारी,
चले गऐ शहर, छोड खेत और जन्म भूमि अपनी प्यारी।
जहाॅ देश का पेट भरने वाले रहते थे किसान ,
उपजाऊ भूमि बनी अब बंजर और शमशान ।
कल मजदूर रखने वाला अन्नदाता आज शहरों में है मजदूर,
दिन भर काम और रात को सोने की जगह के लिए है मजबूर।
मेरा गाॅव, गाॅव रहा न शहर,
झेल रहा दुविधाओं का कहर ।
न रहा वृ़क्ष न बंधेगा झुला
कैसे जलेगा माटी का चूल्हा ।
शहरी सभ्यता खा गई प्यारा गाॅव
मिल नहीं पा रहा मुझे मेरा गाॅव ।
कैसे करु मेरे गाॅव की तलाश
आत्मा दिखती न मिलती लाश।
व्यंग्यकार एवं लघुकथाकार,
गणगौर साधना केन्द्र्र, साहित्य कुटीर,
पं0रामनारायणजी उपाध्याय वार्ड क्र0 खण्डवा(म0प्र0)450001 मो - 919425086246
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