कहानी - सिसकियाँ
महेन्द्र तिवारी
आज भी, जब तन्हाइयों में खो जाती हूँ तो लगता है मानो मैं किसी पुरानी बस की खिड़की से बाहर झाँक रही हूँ - पीछे छूटते धूल उड़ाती पगडंडियाँ, किनारे पर खड़े जामुन के पेड़ों की कतारें, और कस्बे के उस छोटे से स्कूल की ठंडी दीवारें। मेरा संसार वहीं सिमटा हुआ था। मेरी दुनिया में एक खलिश थी - मैं साँवली थी, पर मेरे नयन नक्श कुछ ऐसे ईश्वरीय देन थे कि लोग मुझे सहज ही स्नेह दिया करते थे।
पिता नौकरी के सिलसिले में अक्सर बाहर रहते थे। माँ के साथ हम बच्चे गाँव में ही रहते थे। पाँच भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ी थी। इस नाते मुझे घर में एक अलग स्थान मिला था, ज़िम्मेदारी और थोड़ी इज़्ज़त दोनों। लेकिन माँ का स्वभाव बहुत सख़्त था। वो हर छोटी-बड़ी बात पर पैनी नज़र रखतीं और किसी पर जल्दी विश्वास नहीं करतीं। मुझे पढ़ने-लिखने की पूरी छूट उन्होंने दी थी, लेकिन उस स्वतंत्रता पर एक अदृश्य जंजीर भी कस दी थी- "जरा संभल कर रहना, लड़की को फिसलते देर नहीं लगती।"
उस वक़्त हमारी उम्र वही थी जब सपने आकार लेते हैं, मन हर ओर भटकता है और दिल को शब्दों से ज़्यादा एहसास समझ में आने लगते हैं। कहते हैं लड़कियाँ जल्द ही जवान हो जाती हैं। लेकिन गांव में काफी संभलकर रहना पड़ता है। वैसे मेरी कई दोस्त काफी चालू थीं, उन्होंने वह सब अनुभव कर लिया था जो शादी के बाद ही नसीब होता है।
मैं
तब हाई स्कूल में थी। इसी दौरान हमारे स्कूल में एक नए अध्यापक आए-नीरज सर। वो गणित और विज्ञान पढ़ाते थे। उनकी शख़्सियत में कुछ ऐसा था कि
हर किसी की नज़र उन पर टिक जाती। संयमित, पढ़े-लिखे और सादगी
से भरे इंसान। हम लड़कियों के बीच उनका अपना एक अलग ही क्रेज़ था। कई सहेलियाँ
उन्हें मज़ाक में “जीजाजी” कहतीं क्योंकि उनके किसी मित्र की साली भी हमारे ही
क्लास में थी। पर मैंने उन्हें हमेशा “भैया” ही कहा।
शायद
इसलिए कि मेरे जीवन में कोई ऐसा दोस्त नहीं था जिससे मैं दिल की बात कह सकूँ। भैया
कह देने से एक सुरक्षा-सा घेरा बन जाता था, एक
मर्यादा कायम रहती थी।
हम
अक्सर बस में स्कूल से घर लौटते वक़्त मिलते। उनके हाथ में हमेशा कुछ किताबें होतीं थीं। एक दिन हिम्मत कर मैंने उनसे एक
किताब माँग ली। बिना कोई सवाल पूछे उन्होंने किताब थमा दी। फिर धीरे-धीरे ये
सिलसिला बढ़ा। और एक दिन हिम्मत करके मैंने किताब में एक चिठ्ठी डाल दी।
"भैया
जी,
सदर
प्रणाम।
मुझे
नहीं पता क्यों, पर आपमें मुझे अपने बड़े भाई का
अक्स दिखाई देता है। मेरा एक छोटा भाई है, पर बड़ा भाई जैसा
साया आपसे मिलने पर ही महसूस होता है। आपसे मिलकर वह खालीपन कुछ हद तक भर जाता है।
आपकी
बहन,
सुमन।"
उस
दिन उन्होंने जो किताब लौटाई, उसमें कोई जवाब
नहीं था। बस एक छोटी सी मुस्कान थी और उस मुस्कान में एक मौन स्वीकार। फिर अगली
किताब में उनका जवाब आया। और यूँ किताबों के साथ चिट्ठियों का सिलसिला चल निकला।
हमने
कभी कोई सीमा नहीं लांघी। हमारे शब्दों का रिश्ता सीमाओं के भीतर था,
पर उन सीमाओं के भीतर भी एक गहरी नदी बहती थी। जब कभी किताबें
लेते-देते हमारी उंगलियां छू जातीं, एक हल्की सी सुरसुरी
दौड़ जाती शरीर में। किशोर उम्र काफी नाजुक होता है। अगर समाज का बंधन और अंकुश ना
हो तो पता नहीं क्या बवंडर हो जाये। लेकिन हमारे रिश्ते का स्वरूप भाई-बहन का ही
था। यही मर्यादा हमें भटकने से रोकती।
उस
दौर में न मोबाइल था, न खुला माहौल।
लड़का-लड़की की दोस्ती समाज के लिए शंका का विषय थी। इसलिए चिट्ठियाँ ही हमारी
दुनिया थीं और डर हमारा पहरेदार। डर कि कहीं माँ को भनक न लग जाए, कहीं समाज इसे गलत अर्थों में न ले ले।
फिर
मेरी दसवीं बोर्ड के इम्तिहान सर पर आ गए। पढ़ाई में मन लगाना कठिन था,
पर ज़रूरी भी था। उन दिनों उन्होंने मेरा हौसला बहुत बढ़ाया। उनकी
चिट्ठियाँ मेरे लिए सहारा बनीं। हर पत्र में कोई प्रेरणादायक उद्धरण-कभी तुलसीदास, कभी प्रेमचंद, कभी
विवेकानंद। उन शब्दों में मुझे मार्गदर्शन, दोस्ती और अपनापन
सब कुछ मिलता।
और
अब हम अंतर्देशीय से पत्र व्यवहार करने लगे थे। मैंने एक सुझाव दिया-
"भैया,
आप चिट्ठी ऐसे लिखिए जैसे कोई लड़की अपनी सहेली को लिख रही हो। अंत
में मेरी सहेली का नाम डाल दीजिए और भेजने वाले के पते में भी उसी का नाम लिख दीजिए।
माँ बहुत शक्की हैं, कहीं उन्हें पता न चल जाए।"
वो
मान गए। और हमारी दुनिया और भी छुपकर चलने लगी। यह इसलिए भी जरूरी था क्योंकि मेरी
माँ बहुत शक्की किस्म की औरत थी और उन्हें हर बात की भनक लग जाती थी।
परीक्षा
के दिनों में मैंने उन्हें सेंटर पर बुलाया। वो आए भी। माँ से मिलवाते समय मैंने
कहा,
“ये मेरे एक दोस्त के भाई हैं, पढ़ाई में मदद
करते हैं।”
माँ
ने संदेह से पूछा-“आप मेरी बेटी को कैसे
जानते हैं?”
उन्होंने
शांत भाव से उत्तर दिया-“मैं इसे अपनी बहन
मानता हूँ। पढ़ाई में मदद करता हूँ।”
माँ
का चेहरा कठोर हो गया। उनकी आँखों में शंका के बादल घिरने लगे। उस रात माँ ने मुझे
चेतावनी दी-
"ऐसे
रिश्ते समाज में इज़्ज़त नहीं पाते। मुंहबोले भाई का कोई मतलब नहीं होता। जब तेरे
बाबा को पता चलेगा तो तू जानती है क्या होगा। अब से उससे मिलना बंद कर दे।"
मैं
नि:शब्द थी। भीतर जैसे कोई दीवार ढह रही थी। अगले दिन उनकी लौटाई किताब में कोई
चिट्ठी नहीं थी-बस एक पंक्ति लिखी थी- "रिश्तों का अंत अगर इज़्ज़त बचा ले, तो उसे
त्याग कहा जाता है, हार नहीं।"
इसके
बाद सब बदल गया। जल्दी ही मेरी शादी तय कर दी गई। एक अच्छे घर में,
एक अच्छे आदमी के साथ। ज़िंदगी में सब कुछ था - इज्ज़त, सुविधा, बच्चों की किलकारी। मैंने एक आदर्श पत्नी और
माँ का जीवन जिया। समाज की नज़रों में, मेरी कहानी सफल थी।
लेकिन
उन किताबों में दबी चिट्ठियों की खुशबू अब भी मेरे जीवन की किसी अलमारी में छुपी
थी। शायद वो प्यार नहीं था। शायद मोह भी नहीं। वो एक अद्भुत भ्रम था,
जो किशोर मन की नमी में उग आया था। लेकिन भ्रम भी अगर इतना सच्चा हो,
तो जीवनभर की अविस्मरणीय स्मृति बन जाता है।
कुछ
रिश्ते ऐसे होते हैं जिन्हें हम खुले में जी नहीं पाते क्योंकि सच्चे रिश्ते भी
समाज की निगाहों में झूठे बन जाते हैं, सिर्फ
इसलिए क्योंकि उन रिश्तों को इजाजत नहीं मिल पाती।
अब
जब भी मैं कभी अपनी आलमारी सहेजती हूँ, तो अनायास हमारी
चिट्ठियाँ मिल जाती हैं। मैं मुस्कुरा देती हूँ क्योंकि कुछ रिश्ते भले ही समय की
रेत में दब जाएं, लेकिन उनकी छाप दिल की किताबों में हमेशा
के लिए दफ़न होकर भी सिसकियाँ जीवित रह जातीं हैं।
मोबाइल:
9989703240
ईमेल:
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पता:
स्थापना अनुभाग, राष्ट्रीय अभिलेखागार, जनपथ, नई दिल्ली- 110001
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