गोरखपुर।हमारे वेदों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का बीज मिलता है। यदि भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को एक बार फिर से जागृत करना है, तो सभी को न केवल संस्कृत भाषा का अध्ययन करना होगा बल्कि उसमें निहित सांस्कृतिक भावना को भी आत्मसात करना होगा।
गोरखनाथ मंदिर में आयोजित 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एवं संस्कृत' विषय पर संगोष्ठी में बतौर विशिष्ट वक्ता बोलते हुए प्रो.मुरली मनोहर पाठक, अध्यक्ष-संस्कृत विभाग गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर ने उक्त बातें कही।
उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति को बनाए रखने के लिए संस्कृत का अध्ययन किया जाना चाहिए। संस्कृत हमें जीवन जीने की कला सिखाती है।
संगोष्ठी के मुख्य वक्ता विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित ने कहा कि संस्कृति हमारी परंपरा और आध्यात्मिक आस्था का मूल है। जो संस्कृत से संरक्षित होती है। भारतीय संस्कृति संस्कृत भाषा की बेटी है। उन्होंने कहा कि त्याग तपस्या और साहचर्य से राष्ट्र का जन्म हुआ था। यह प्रेरणा संस्कृत साहित्य से ही मिलती है। उन्होंने कहा कि संस्कृति और संस्कृत को अलग नहीं किया जा सकता।
अध्यक्षता करते हुए प्रो.यू पी सिंह ने कहा कि पश्चिमी अवधारणा के विपरीत भारतीय मनीषियों ने राष्ट्र को एक भू- सांस्कृतिक इकाई माना है। ऐसे में संस्कृति के बगैर भारत की कल्पना बेमानी है और संस्कृति की रक्षा संस्कृत भाषा से ही संभव है। कार्यक्रम का संचालन डॉक्टर श्री भगवान सिंह ने किया।
यह संगोष्ठी ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ -अवैद्यनाथ की जयंती-पुण्यतिथि समारोह के दूसरे दिन आयोजित की गई थी।
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