:प्रो. सदानंद शाही :
जैसे जैसे आधुनिकता की विसंगतियां उजागर होती गयी हैं,देशज आधुनिकता की चर्चा होने लगी है।जेरे बहस यह भी है कि अगर अंग्रेज नहीं आये होते और हमें पश्चिम से आधुनिकता आयात करने की मजबूरी न होती तो हमारे यहां आधुनिकता का देशज रूप विकसित होता ।इस देशज आधुनिकता की जडें कहीं ज्यादा मजबूत और गहरी होतीं और पुनरुत्थानवाद के एक धक्के से भहराकर गिर नहीं जाती।बात जब आगे बढी और देशज आधुनिकता के मूल स्रोतों की खोज करने चले हैं तो एक और आश्चर्य से हमारी भेंट हुई।जिन जनपदीय भाषाओं को हमने उपनिवेशवादी प्रभुओं के मशविरे पर देशी और गंवार मान लिया था ,हमारी देशज आधुनिकता का ताना और बाना इन जनपदीय भाषाओं से ही रचा -गढा गया।कबीर हों या मीराबाई इनकी कविता में निहित आधुनिकता हमारी जनपदीयता की ही देन है।जनपदीय स्रोतों में ऐसे अनेक प्रकाशपुंज हैं जो भारतीय आत्मा का पथ आलोकित करते हैं और उसे जडता और अंधकार के गहरे कुंए से बाहर खींचकर लाते हैं। भिखारी ठाकुर ऐसे ही प्रकाशपुंज हैं।
ठेठ भोजपुरिया इलाके छपरा जिले के कुतुबपुर में जन्में भिखारी के पास कोई औपचारिक शिक्षा दीक्षा नहीं थी।और शायद यह अच्छा ही था।वे भी आम पुरबियों की तरह कमाई के लिए कलकत्ता की ओर (खड्गपुर)गये।और कुछ दिन बाद वापस अपने गांव कुतुबपुर लौट आये।कुछ दिन रामलीला से जुडे रहने के बाद भिखारीठाकुर ने अपना रास्ता अलग कर लिया।यह रास्ता गहन लोकबद्धता का है। विस्थापन का दंश झेल रहे लोक की पीडा के आख्यान को भिखारी ने न केवल आवाज दी बल्कि पीडा के स्रोतों को चिन्हित करके उससे मुक्ति का विधान भी रचा।इस दौरान स्त्री समाज की बहुविधि व्यथाओं पर उनका ध्यान गया।वैसे तो भिखारी ठाकुर ने अपनी सभी रचनाओं में स्त्री के दुखों की चर्चा की है और दुख से मुक्ति के उपाय की दिशा में अग्रसर किया है।विदेसिया हो या बेटी बेचवा के नाम से मशहूर बेटी वियोग,कलजुग प्रेम हो या फिर विधवा विलाप सब में भारतीय स्त्री के दुख की गाथा मौजूद है ।लेकिन भिखारी ठाकुर का एक नाटक गबर घिचोर स्त्री के देह के अधिकार को ,कोंख के अधिकार को इतनी सहजता से उठाता है कि चकित रह जाना पडता है। गबरघिचोर नाटक की मुक्तसर सी कथा है-गलीज गवना कराकर पत्नी को घर ले आता है और खुद चला जाता है विदेस।पन्द्रह साल तक बीबी की कोई खोज खबर नहीं लेता । अचानक पता चलता है कि घर पर उसका (उसकी पत्नी का)बेटा जवान हो गया है।वह अपनी कमाई बढाने के लिए बेटे को अपने पास लाना चाहता है और इसी इरादे से गांव जाता है।पत्नी पहले तो इशारे में कहती है कि पन्द्रह साल बाद आये हो सोचो कि तेरह साल का बेटा तुम्हारा कैसे हो सकता है?और उस पर तुम्हारा क्या अधिकार बनता है।लेकिन गलीज मारपीट पर उतारू हो जाता है।इसी बीच गांव का एक युवक जिसका नाम भिखारी ने गडबडी रखा है,आ धमकता है। वह कहता है कि गबरघिचोर का असली पिता तो मैं हूं,यह मेरे पास रहेगा।कानूनी पिता और जैविक पिता में झगडा होने लगता है। गलीज बहू जिसने गबरघिचोर को जन्म दिया है ,पाला पोसा है उसे कोई पूछ ही नहीं रहा है। ऐसे में गलीजबहू अपने अधिकार के लिए लडती है ।पंचायत में वह तर्क देती है कि मेरे पास पांच सेर दूध है,अगर मैं किसी से थोडा जामन लेकर दही जमाती हूं और घी निकालती हूं तो घी पर अधिकार किसका होगा। स्वाभाविक है जिसका दूध है उसका। मेरा शरीर दूध की तरह है और इससे उत्पन्न बालक हर हाल में मेरा ही होगा।वह अपने इस दावे के लिए लडती है और अन्तत: अपना हक हासिल करती है।इसमें वह अपनी कोख के हक पर जोर देती है-'ओदर(पेट) से हउवन बेटा हमार ,ओदर से'। फिर वह नौ महीने पेट में रखकर पालने के सवाल को उठाती है।
ध्यान रहे कि भिखारी ठाकुर जब यह नाटक लिख रहे थे तब भारत में कोई महिला आन्दोलन नहीं था।बाहर भी जो स्त्री आन्दोलन चल रहे थे वे मताधिकार और राजनीतिक भागीदारी तक सीमित थे।स्त्री आन्दोलनों में शरीर पर,कोख पर,प्रजनन शक्ति पर अधिकार की बात बहुत बाद में आयी।स्त्री की इच्छाओं पर बात होती रही पर शरीर पर उसके अधिकार की बात नहीं हो रही थी ।स्वयं महादेवी वर्मा विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना कह रही थीं तो स्त्री की इच्छाओं को स्थापित करने की बात कर रही थीं।लेकिन भिखारी ठाकुर की यह नायिका देह के और कोख के अधिकार का सवाल उठाती है ।और न केवल यह लडाई जीतती है बल्कि सही सलामत जीवित रहती है।इस मामले में यह देशज नायिका टालस्टाय के अन्ना कैरनिना और फलावर्ट के मैडम बावेरी की तुलना में ज्यादा मजबूत है।जो अंत में सहज नहीं रह पातीं। नाटक के अंत में भिखारी कहते हैं -'ज्यौं बेटा माता के संग जाए,त्यौं गडबडी गलीज लजाए'। जिस पुरुष प्रधान समाज के भीतर सारे तर्क ,सारे नीति विधान पुरुष आधारित हैं उसमें भिखारी की यह नायिका जैविक और कानूनी अधिकार का दावा करने वाले पुरुषों को लज्जित कर देती है।यह एक ऐसा देशज स्त्री विमर्श है जहां संकीर्णता की जगह उदात्तता और पवित्रता की जगह मानवता को तरजीह दी गयी है। स्त्री के बारे में पवित्रता के सवाल प्राय: संकीर्णता की ओर ले जाते हैं जबकि जरूरत मानवीय और उदात्त होने की है।भिखारी ठाकुर अपनी रचनाओं में ऐसी ही देशज आधुनिकता का सृजन करते हैं जो उदात्त और मानवीय है , और सहज है। इसमें किसी तरह की अतिक्रांतिकारिता नहीं है इसलिए ज्यादा टिकाऊ ,भरोसेमंद और प्रामाणिक है।
(फेसबुक वॉल से साभार)
जैसे जैसे आधुनिकता की विसंगतियां उजागर होती गयी हैं,देशज आधुनिकता की चर्चा होने लगी है।जेरे बहस यह भी है कि अगर अंग्रेज नहीं आये होते और हमें पश्चिम से आधुनिकता आयात करने की मजबूरी न होती तो हमारे यहां आधुनिकता का देशज रूप विकसित होता ।इस देशज आधुनिकता की जडें कहीं ज्यादा मजबूत और गहरी होतीं और पुनरुत्थानवाद के एक धक्के से भहराकर गिर नहीं जाती।बात जब आगे बढी और देशज आधुनिकता के मूल स्रोतों की खोज करने चले हैं तो एक और आश्चर्य से हमारी भेंट हुई।जिन जनपदीय भाषाओं को हमने उपनिवेशवादी प्रभुओं के मशविरे पर देशी और गंवार मान लिया था ,हमारी देशज आधुनिकता का ताना और बाना इन जनपदीय भाषाओं से ही रचा -गढा गया।कबीर हों या मीराबाई इनकी कविता में निहित आधुनिकता हमारी जनपदीयता की ही देन है।जनपदीय स्रोतों में ऐसे अनेक प्रकाशपुंज हैं जो भारतीय आत्मा का पथ आलोकित करते हैं और उसे जडता और अंधकार के गहरे कुंए से बाहर खींचकर लाते हैं। भिखारी ठाकुर ऐसे ही प्रकाशपुंज हैं।
ठेठ भोजपुरिया इलाके छपरा जिले के कुतुबपुर में जन्में भिखारी के पास कोई औपचारिक शिक्षा दीक्षा नहीं थी।और शायद यह अच्छा ही था।वे भी आम पुरबियों की तरह कमाई के लिए कलकत्ता की ओर (खड्गपुर)गये।और कुछ दिन बाद वापस अपने गांव कुतुबपुर लौट आये।कुछ दिन रामलीला से जुडे रहने के बाद भिखारीठाकुर ने अपना रास्ता अलग कर लिया।यह रास्ता गहन लोकबद्धता का है। विस्थापन का दंश झेल रहे लोक की पीडा के आख्यान को भिखारी ने न केवल आवाज दी बल्कि पीडा के स्रोतों को चिन्हित करके उससे मुक्ति का विधान भी रचा।इस दौरान स्त्री समाज की बहुविधि व्यथाओं पर उनका ध्यान गया।वैसे तो भिखारी ठाकुर ने अपनी सभी रचनाओं में स्त्री के दुखों की चर्चा की है और दुख से मुक्ति के उपाय की दिशा में अग्रसर किया है।विदेसिया हो या बेटी बेचवा के नाम से मशहूर बेटी वियोग,कलजुग प्रेम हो या फिर विधवा विलाप सब में भारतीय स्त्री के दुख की गाथा मौजूद है ।लेकिन भिखारी ठाकुर का एक नाटक गबर घिचोर स्त्री के देह के अधिकार को ,कोंख के अधिकार को इतनी सहजता से उठाता है कि चकित रह जाना पडता है। गबरघिचोर नाटक की मुक्तसर सी कथा है-गलीज गवना कराकर पत्नी को घर ले आता है और खुद चला जाता है विदेस।पन्द्रह साल तक बीबी की कोई खोज खबर नहीं लेता । अचानक पता चलता है कि घर पर उसका (उसकी पत्नी का)बेटा जवान हो गया है।वह अपनी कमाई बढाने के लिए बेटे को अपने पास लाना चाहता है और इसी इरादे से गांव जाता है।पत्नी पहले तो इशारे में कहती है कि पन्द्रह साल बाद आये हो सोचो कि तेरह साल का बेटा तुम्हारा कैसे हो सकता है?और उस पर तुम्हारा क्या अधिकार बनता है।लेकिन गलीज मारपीट पर उतारू हो जाता है।इसी बीच गांव का एक युवक जिसका नाम भिखारी ने गडबडी रखा है,आ धमकता है। वह कहता है कि गबरघिचोर का असली पिता तो मैं हूं,यह मेरे पास रहेगा।कानूनी पिता और जैविक पिता में झगडा होने लगता है। गलीज बहू जिसने गबरघिचोर को जन्म दिया है ,पाला पोसा है उसे कोई पूछ ही नहीं रहा है। ऐसे में गलीजबहू अपने अधिकार के लिए लडती है ।पंचायत में वह तर्क देती है कि मेरे पास पांच सेर दूध है,अगर मैं किसी से थोडा जामन लेकर दही जमाती हूं और घी निकालती हूं तो घी पर अधिकार किसका होगा। स्वाभाविक है जिसका दूध है उसका। मेरा शरीर दूध की तरह है और इससे उत्पन्न बालक हर हाल में मेरा ही होगा।वह अपने इस दावे के लिए लडती है और अन्तत: अपना हक हासिल करती है।इसमें वह अपनी कोख के हक पर जोर देती है-'ओदर(पेट) से हउवन बेटा हमार ,ओदर से'। फिर वह नौ महीने पेट में रखकर पालने के सवाल को उठाती है।
ध्यान रहे कि भिखारी ठाकुर जब यह नाटक लिख रहे थे तब भारत में कोई महिला आन्दोलन नहीं था।बाहर भी जो स्त्री आन्दोलन चल रहे थे वे मताधिकार और राजनीतिक भागीदारी तक सीमित थे।स्त्री आन्दोलनों में शरीर पर,कोख पर,प्रजनन शक्ति पर अधिकार की बात बहुत बाद में आयी।स्त्री की इच्छाओं पर बात होती रही पर शरीर पर उसके अधिकार की बात नहीं हो रही थी ।स्वयं महादेवी वर्मा विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना कह रही थीं तो स्त्री की इच्छाओं को स्थापित करने की बात कर रही थीं।लेकिन भिखारी ठाकुर की यह नायिका देह के और कोख के अधिकार का सवाल उठाती है ।और न केवल यह लडाई जीतती है बल्कि सही सलामत जीवित रहती है।इस मामले में यह देशज नायिका टालस्टाय के अन्ना कैरनिना और फलावर्ट के मैडम बावेरी की तुलना में ज्यादा मजबूत है।जो अंत में सहज नहीं रह पातीं। नाटक के अंत में भिखारी कहते हैं -'ज्यौं बेटा माता के संग जाए,त्यौं गडबडी गलीज लजाए'। जिस पुरुष प्रधान समाज के भीतर सारे तर्क ,सारे नीति विधान पुरुष आधारित हैं उसमें भिखारी की यह नायिका जैविक और कानूनी अधिकार का दावा करने वाले पुरुषों को लज्जित कर देती है।यह एक ऐसा देशज स्त्री विमर्श है जहां संकीर्णता की जगह उदात्तता और पवित्रता की जगह मानवता को तरजीह दी गयी है। स्त्री के बारे में पवित्रता के सवाल प्राय: संकीर्णता की ओर ले जाते हैं जबकि जरूरत मानवीय और उदात्त होने की है।भिखारी ठाकुर अपनी रचनाओं में ऐसी ही देशज आधुनिकता का सृजन करते हैं जो उदात्त और मानवीय है , और सहज है। इसमें किसी तरह की अतिक्रांतिकारिता नहीं है इसलिए ज्यादा टिकाऊ ,भरोसेमंद और प्रामाणिक है।
(फेसबुक वॉल से साभार)
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