पतहर

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हिन्दी लघु पत्रिकाओं पर चर्चा एवं ‘व्यंजना’ पत्रिका का विमोचन

"आज लगभग तीन सौ से अधिक लघु पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं।प्रतिपक्ष का पूरा समाजशास्त्र गढ़ती ये पत्रिकाएं नए रचनाकारों के लिए भी वरदान साबित हुईं। हिन्दी के तमाम बड़े रचनाकार इन्ही लघु पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आए और उन्हे साहित्यिक स्वीकृति मिली।"

*  ‘शब्दम’ संस्था का विशेष आयोजन

 शिकोहाबाद। स्थित प्रसिद्ध साहित्यक संस्था शब्दम के तत्त्वावधान में 'हिंदी लघु पत्रिकाओं की वर्तमान स्थिति' विषय पर परिचर्चा संम्पन्न हुई साथ ही व्यंजना पत्रिका अंक पांच का विमोचन किया गया।

       परिचर्चा का विषय प्रवर्तन करते हुए ख्यातिप्राप्त आलोचक ,कवि डॉ महेश आलोक ने अपने वक्तव्य में  कहा- ‘विचारशीलता एवं प्रतिबद्धता के साथ हिन्दी की लघु पत्रिकाएं, सत्तर के दशक में  कारपोरेट घराने से निकलने वाली पत्रिकाओं के सत्तावादी विमर्श में लिप्त होने तथा मनुष्य विरोधी संरचनाओं को हवा देने के प्रतिरोध में सामने आयीं।आज लगभग तीन सौ से अधिक लघु पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं।प्रतिपक्ष का पूरा समाजशास्त्र गढ़ती ये पत्रिकाएं नए रचनाकारों के लिए भी वरदान साबित हुईं। हिन्दी के तमाम बड़े रचनाकार इन्ही लघु पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आए और उन्हे साहित्यिक स्वीकृति मिली।एक सुव्यवस्थित बुनियादी ढाँचा न होने के बावजूद हिन्दी की लघु पत्रिकाएं पिछले चालीस वर्षों से निरन्तर पूँजीवादी पत्रिकाओं के आतंक को चुनौती देती रही हैं।’
परिचर्चा शुरु होने से पूर्व लघु पत्रिका ‘व्यंजना’ का डा0 महेश आलोक,मजुरुल वासे, शिव कुशवाहा, अरविन्द तिवारी द्वारा विमोचन भी किया गया।‘
व्यंजना’ पत्रिका के संपादक डा0शिव कुशवाह एवं डा0 अरविन्द यादव ने हिन्दी लघु पत्रिकाओं की वर्तमान चुनौतियों पर अपने विचार व्यक्त किए।
डा0 अरविन्द यादव ने कहा-लघु पत्रिकाओं का प्रादुर्भाव सेठाश्रयी व सत्ताश्रयी पत्रिकाओं के बरअक्स  हुआ था। ये पत्रिकाएं उस पीढ़ी को जो व्यवस्था परिवर्तन के स्वप्न के साथ क्रांति की मशाल लिए जन पक्षधरता व सामाजिक सरोकारों के मुद्दे उठाने को व्यग्र थीं, को छापने में संकोच कर रही थी। ऐसे में इस क्रान्तिकारी पीढ़ी नेअपनी अभिव्यक्ति को स्वर देने के लिए अपनी पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया। देखते ही देखते देश के विभिन्न हिस्सों से सैंकड़ों लघु पत्रिकाएं निकलने लगीं थीं। भारत के स्वाधीनता संग्राम में भी लघु पत्रिकाओं ने महती भूमिका निभाई।
व्यंजना संपादक डा0शिव कुशवाहा  ने कहा- ‘"लघुपत्रिकाएं साहित्य की वाहक होती हैं। इनका प्रकाशन मुख्यधारा की पत्रिकाओं के विरोध स्वरूप साहित्यिक जनपक्षधरता और प्रतिरोध को आगे बढ़ाने के लिए हुआ। कोई भी बड़ा लेखक ,कवि लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होने पर ही बड़ा लेखक कवि बनता है।यदि समय रहते लघु पत्रिकाओं को संस्थागत और सरकारी अनुदान नहीं मिला तो धीरे धीरे लघुपत्रिकाओं के प्रकाशन पर बड़ा संकट उत्पन्न हो जाएगा।"
चर्चित व्यंगकार अरविन्द तिवारी ने चर्चा को गति प्रदान करते हुए कहा कि ‘हिन्दी में चार तरह की पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं।पहली वे जो बड़े घरानों की पत्रिकाएं है,दूसरी सरकारी पत्रिकाएं,तीसरी एन0जी0ओ0 द्वारा प्रकाशित पत्रिकाएं और तीसरी वे पत्रिकाएं जो जनपक्षधरता के साथ व्यवस्था विरोध और बड़ी पत्र-पत्रिकाओं की जकड़बन्दी से साहित्य को बाहर निकालने के उपक्रम में सामने आयीं ।वस्तुतः ऐसी ही पत्रिकाओं को लघु पत्रिका कहा गया।तिवारी जी ने व्यग्य लघु पत्रिकाओं की भी विस्तार से चर्चा की।
  अपने अध्यक्षीय संबोधन में मजुरुल वासे ने सभी वक्ताओं के कथनों का समाहार करते हुए कहा कि अगर साहित्य को जीवित रखना है तो लघु पत्रिकाओं के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए हम सभी को आगे आना पड़ेगा,क्योंकि ये पत्रिकाएं व्यक्तिगत कोशिशों से निकलती हैं और शीघ्र ही धनाभाव के कारण काल कवलित हो जाती हैं।जबकि सच्चाई यह है कि अपनी आयु में कम होने के बावजूद इन पत्रिकाओं का कद बहुत बड़ा होता है।
कार्यक्रम में नगर के गणमान्य नागरिक, साहित्यकार बड़ी संख्या में मौजूद रहे। इस गंभीर परिचर्चा का सँचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन डा0महेश आलोक ने किया।

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2 Comments

  1. एक महत्त्वपूर्ण आयोजन | व्यंजना पत्रिका कविता को लेकर कुछ नया और अच्छा कर रही है, इस पर भी चर्चा हुआ यह बड़ी बात है| आयोजन और संयोजन समिति को बहुत शुभकामनाएँ |

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  2. सफल आयोजन , सार्थक चर्चा तथा व्यंजना के नए अंक हेतु हार्दिक बधाई ।

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