पतहर

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वामपन्थी राजनीति के खोखलेपन को भी उजागर करती है सीमान्त कथा - उषाकिरण खान

 नई दिल्ली।आज विश्व पुस्तक मेले में दिनांक 10 जनवरी 2020 को वाणी प्रकाशन के स्टॉल : 233-252 (हॉल 12ए) पर पद्मश्री लेखिका उषाकिरण खान के उपन्यास 'सीमान्त कथा' पर परिचर्चा की गयी। 'सीमान्त कथा' केवल एक उपन्यास नहीं बल्कि 1974 के बिहार आन्दोलन के बाद के सबसे नाज़ुक दौर का जीवन्त दस्तावेज़ भी है। विभिन्न जनान्दोलनों, जातीय संघर्षों तथा नरसंहारों की भूमि बिहार से उपजी यह कथा न केवल हमें उद्वेलित करती है बल्कि वामपन्थी राजनीति के खोखलेपन को भी उजागर करती है। 
 कार्यक्रम में पद्मश्री उषाकिरण खान जी के साथ, लेखिका एवं पत्रकार गीताश्री, लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ, प्रोफ़ेसर अल्पना मिश्र, पर्यावरणविद सोपान जोशी, वाणी प्रकाशन के महानिदेशक अरुण माहेश्वरी, ग्रामीण सम्वेदना के वरिष्ठ लेखक मनीष कटारिया, आराधना प्रधान और वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह उपस्थित थे।
वाणी प्रकाशन ग्रुप की प्रबन्ध निदेशक आदिति माहेश्वरी-गोयल ने मंच का संचालन करते हुए सभी अतिथियों और दर्शकों का स्वागत किया। सबसे प्रथम दिल्ली विश्वविद्यालय की हिन्दी विभाग की प्रोफ़ेसर से अदिति माहेश्वरी-गोयल ने प्रश्न किया कि इस उपन्यास ने हिन्दी साहित्य जगत में किस प्रकार का योगदान दिया है? इसका उत्तर देते हुए प्रोफ़ेसर अल्पना मिश्र ने बताया कि यह उपन्यास एक प्रकार से लोक के विश्वास, रूप, छवियों के साथ-साथ कमियों को भी सामने रखता है। उनके अनुसार इस उपन्यास में राजनीतिक जटिलताओं को देख समझकर गहराई से पाठकों के सामने रखा गया है। अपने प्रश्नों को आगे बढ़ाते हुए पर्यावरणविद सोपान जोशी से प्रश्न किया गया कि इस उपन्यास का समकालीन परिप्रेक्ष्य में किस प्रकार मुल्यांकन किया जाये। सोपान जोशी ने कहा कि आज वर्तमान समय में छात्र-छात्राओं को सही दिशा दिखाने वाले ज़्यादा लोग नहीं है, और इस समय में उषाकिरण खान जैसी अनुभवी लेखिकाओं की पैनीं दृष्टि छात्रों और छात्राओं के जीवन को समझने में उपयोगी है।

लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ उपन्यास 'सीमान्त कथा' पर टिप्पणी करते हुए कहती हैं कि, इस उपन्यास के माध्यम से उषाकिरण खान ने मिथिला की स्त्रियों के लिए खिड़की खोली है। मिथिला की औरतों का दर्द, वह राजनीति संक्रमण को किस प्रकार महसूस करती हैं, इस सबका चित्रण उषाकिरण खान बख़ूबी करती हैं। ये वो औरतें हैं जो घर रसोई तक सीमित नहीं रहतीं, उन्हें वहाँ से निकल अपनी बात कहनी आती हैं। मनीषा कुलश्रेष्ठ के अनुसार ऊषाकिरण खान की खिड़कियों में बहुत सी सम्भावनाएँ है।
अदिति माहेश्वरी-गोयल का एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न वाणी प्रकाशन के प्रबन्ध निदेशक अरुण माहेश्वरी से था कि  यह उपन्यास आज के कालखण्ड में क्यों आवश्यक है? अरुण माहेश्वरी इसके उत्तर में कहते हैं, इस उपन्यास में जीवन जीने के दृष्टिकोण में खुलापन है, यह अपने समय से आगे की बात रखता है। वहीं ग्रामीण सम्वेदना के वरिष्ठ लेखक मनीष कटारिया, ने बताया कि इस उपन्यास में ग्रामीण औरतों के पहनावे से लेकर, व्यवहार, बातचीत तक आधुनिक दृष्टिकोण मिलता है। यहाँ एक आधुनिक, स्वाभिमानी सीता के समान स्त्रियों में ठसक मिलती है। 
पद्मश्री उषाकिरण खान अपनी बात शुरू करते हुए  बताती हैं कि असल में यह राजनीतिक, छात्र आन्दोलन से जुड़ा उपन्यास है, जिसके कथानक में दो छात्र केन्द्र में है। इसके अन्तिम भाग का पाठ करते हुए कहती हैं कि इसके मूल में गाँधी की, उनकी अहिंसा की विचारधारा है। वह कहती हैं कि हिंसा के विरुद्ध गाँधी की प्रतिष्ठा करता यह उपन्यास है। सोपान जोशी के अनुसार राजनीतिक बेचैनी के साथ, पर्यावरणीय हिंसा को भी समझने में मदद करता है ये उपन्यास। प्रसिद्ध लेखिका गीताश्री अपनी बात करते हुए, मिथिला में सशक्त नारियों की एक पूरी परम्परा सामने रखती हैं, मैत्रेयी, गार्गी, भामती का सम्मिश्रण उन्हें उषाकिरण खान में दिखता है। वह बताती हैं कि सीता के स्वाभिमान के ऊपर सबसे अधिक उन्होंने लिखा। वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह अपनी बात रखते हुए कहते हैं कि आज जहाँ सरकार गाँधी के पूर्ण विचारों को समझने में नाकामयाब रही है वहीं, यह उपन्यास गाँधी की अहिंसात्मक परम्परा को आन्दोलन में प्रतिष्ठित  करता है, उनकी बहुआयामी विचारधारा को पाठकों के सामने रखता है। यही परम्परा आगे जयप्रकाश नारायण में मिलती है। आख़िर में अपनी बात ख़त्म करते हुए, उषाकिरण खान मानती हैं कि लोकतन्त्र में हिंसा का स्थान नहीं। 
            वाणी प्रकाशन ग्रुप की ओर से उषाकिरण खान को शाल से सम्मानित किया गया, और सभी उपस्थित गणमान्य व्यक्तियों के साथ उनके उपन्यास का विमोचन किया गया।