पतहर

पतहर

राष्ट्र की पहेली और पहचान का सवाल विषय पर परिचर्चा आयोजित


#प्रेमचंद_जयंती_समारोह_2019 पर पेश है #शोभा_अक्षर की रिपोर्ट
-----------------------------------------------------
प्रेमचंद की 149वीं जयंती के अवसर पर हंस पत्रिका ने अपना  34 वां वार्षिक आयोजन ग़ालिब सभागार, नई दिल्ली में आयोजित  किया। जिसका विषय रहा,'राष्ट्र की पहेली और पहचान का सवाल'। 
इस कार्यक्रम में अपनी बात रखते हुए अंग्रेज़ी पत्रिका 'द कैरेवान'  के राजनीतिक संपादक हरतोष सिंह बल ने कहा कि अगर हम अपनी पहचान का विश्लेषण कर सकेंगे तो राष्ट्र के परिभाषा की पहेली अपने आप सुलझ जाएगी। हमें ये समझना होगा कि हम अपनी पहचान से राष्ट्र को नहीं जोड़ सकते लेकिन अपनी पहचान को राष्ट्र से जरूर जोड़ सकते हैं। मसलन जैसे मैं जाट हूं, मैं पंजाबी हूं या सिख हूँ तो इसका मतलब यह हुआ कि पंजाबी मेरी भाषा है और मैं  हिंदू धर्म के दायरे से बाहर खड़ा हुआ हूं। याद रखिये, भूगोल, भाषा और इतिहास को लेकर अगर राष्ट्र बनता है तो यहां उपस्थित सभी लोगों का अपना अलग- अलग राष्ट्र होता। क्योंकि यहां उपस्थित सभी लोगों की अपनी अलग भाषा है और अपना अलग इतिहास है। अगर राष्ट्रवाद गाय पर आधारित है, किसी के रंग रूप पर आधारित है, किसी के जाति पर आधारित है, यदि इन सब पर इसकी परिभाषा निर्भर करती है तो मैं कहना चाहूंगा कि मैं इस राष्ट्रवाद का अलगाववादी हूँ।

  प्रसिद्ध लेखिका अनन्या वाजपेई ने विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा कि मैं सबसे ज्यादा मौजूदा समय में परेशान हूं, जो बात मुझे सोने नहीं देती, वो बात है कि जो आए दिन यह मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही है उससे मैं सच में बहुत आहत हूं। ये कैसे हो रहा है कि बहुसंख्यक को अल्पसंख्यकों से भय हो रहा है। मतलब जिनकी संख्या ज्यादा है उन्हें कम संख्या वाले लोगों से भय उत्पन्न हो रहा है और वह परभक्षी बनने की ओर अग्रसर होते जा रहे हैं। यह जहर उनमें कैसे पैदा हुआ, किसने पैदा किया इस पर विचार करने की जरूरत है। लेकिन संख्या के आंकड़े में तो कम संख्या वालों को डरना चाहिए ज्यादा संख्या वालों से. पर यहां पर बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों से डर रहे हैं।
              आज वह इस बात पर भीड़ को संतुष्ट कर पा रहे हैं कि जिनसे हमें नफरत है उनको कम करना ही एकमात्र उपाय है। यह सब कितना दुखद है, चिंतनीय है कि हम ऐसे राष्ट्र में रह रहे हैं जहां पर संविधान को धता बताते हुए कुछ लोग एक भीड़ बनाते हैं और वह किसी दूसरे जिनसे वह नफरत करते हैं उनको कहते हैं कि तुम्हें संविधान भी नहीं बचा सकता और तुम्हारी मौत निश्चित है।क्योंकि दो चीजें हैं यहां पर एक तो है हम और दूसरा है वे, हम कहते हैं कि वे,वे हैं इसलिए हम उनके साथ नहीं रह सकते लेकिन यह कितना अच्छा हो कि हम, हम रहे और वे, वे रहे भले ही वैचारिक मतभेद हो, संस्कृति में भेद हो लेकिन साथ रहने की कल्पना की जा सकती है। क्योंकि अब तक हम साथ रहते आए हैं आप सोचिए की जय श्री राम के नाम पर एक गीत बनता है और उसमें कहा जाता है कि जो जय श्री राम नहीं कहेगा उसे हम कब्रिस्तान भेजेंगे उसे हम दफ़नाएँगें। इसमें दो शब्द है कब्रिस्तान और दफनाना यह उनकी संकीर्ण सोच को परिलक्षित करता है और हम सबको इसका विरोध करना चाहिए ।क्योंकि इस बात का हम समर्थन करते हैं तो हम अपने साथ अन्याय करते हैं और आने वाले भविष्य के साथ भी अन्याय करते हैं।
नलसार यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति डॉ फैजान मुस्तफ़ा ने अपने सम्बोधन में कहा कि सबसे पहले अपनी बात शुरू करते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि मैं उस लीडर को सलाम करता हूं जिसने बहुसंख्यकों के मन में अल्पसंख्यकों का भय डाल दिया। मेरे हिसाब से होना उल्टा चाहिए था कम लोगों को उन से डरना चाहिए था जो संख्या में ज्यादा लोग हैं। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए यह कहना चाहूंगा कि 1947 में बहुसंख्यकों के पास यह विकल्प नहीं था कि वह पाकिस्तान चले जाएं वह विकल्प सिर्फ अल्पसंख्यकों को था कि वह पाकिस्तान जाएं या भारत में रहे। पर उन्होंने सोचा समझा परखा और कहा कि हमें पाकिस्तान वाला राष्ट्र ज्यादा पसंद हैं, हमें हिंदुस्तान वाला राष्ट्र पसंद है, हमें भारत पसंद है, इसलिए हम यहीं रहेंगे। इस बात को हम सब को समझना होगा कि मुसलमान चांस से यहां नहीं है बल्कि अपने चॉइस की वजह से यहां है। मैं बता दूं कि संविधान में दो तरह की अल्पसंख्यकों के बारे में परिभाषित किया गया है धर्म के आधार पर जिसे रिलिजियस माइनॉरिटी कहा जाता है। दूसरा भाषा के आधार पर जिसे लिंग्विस्टिक माइनॉरिटी कहा जाता है। इस तरह से देखें तो जो लोग अपने आप को बहुसंख्यक कह रहे हैं वह भी कई राज्यों में अल्पसंख्यक हैं। यह कितना भयावह है कि मेजॉरिटी, माइनॉरिटी को बता रहा है कि तुम्हें संविधान भी नहीं बचा सकता है।
 साहित्यकार पुरुषोत्तम अग्रवाल ने प्रेमचंद को याद करते हुए उनकी रचना रंगभूमि के बारे में और उसके किरदार ताहिर अली के बारे में सबको अवगत कराया और बताया कि वह किसी दलित की कहानी नहीं, वह किसी मुसलमान की कहानी नहीं थी, वह कहानी थी आम आदमी की जो रोज आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से जूझता है। मैं कहना चाहता हूं कि किसी भी समस्या को तुच्छ न बनाएं। क्योंकि हिंसा की स्वीकृति ही समाज को बीमार बनाती है। कुछ लोग कहते हैं कि प्रेमचंद ने पहले उर्दू में रचना की बाद में हिंदी में रचनाएं लिखी। पर मैं उन्हें बता देना चाहता हूं कि अपने अंतिम समय तक प्रेमचंद ने दोनों भाषाओं में रचनाएं लिखी। अगर बात रंगभूमि की करूं तो उसको उन्होंने पहले उर्दू में लिखा था, बाद में हिंदी में लिखा लेकिन प्रकाशित हिंदी में पहले हो गया। आज लोगों को भाषा के आधार पर बांटा जा रहा है, जाति के आधार पर बांटा जा रहा है। मैं उन्हें बता देना चाहता हूं कि पहले लोग पढ़े लिखे थे, अब पढ़ तो लेते हैं पर शिक्षित नहीं हो पाते हैं क्योंकि पहले तो ऐसा होता था कि निराला, महात्मा गांधी के सामने अपनी तार्किक विरोध करते हुए अपनी बात रख देते थे और बिल्कुल भी नहीं घबराते थे।
कार्यक्रम की अध्यक्षता, रचना यादव ने की। कार्यक्रम का संचालन पत्रकार प्रियदर्शन ने किया। इस मौके पर ग़ालिब सभागार में दिल्ली के प्रसिद्ध साहित्यकार, रचनाकार, कवि, पत्रकार, के साथ साथ शिक्षक-शिक्षिकाएं एवं छात्र- छात्राएं मौजूद रहे।
(https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=2142310919393916&id=100008450855775)

Post a Comment

0 Comments