पतहर

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तुलसीदास ने परहित को सबसे बड़ा धर्म माना - ध्रुवदेव मिश्र पाषाण/तुलसी जयंती पर विशेष

"परंपरा से प्राप्त राम- कथा की श्रृंखला में तुलसी ने अपना गढ़ा राम भी जोड़ा है। संभव और स्वाभाविक ब्राह्मण- ग्रंथि के बावजूद तत्कालीन राजशाही और बाभन शाही सत्ता- व्यवस्था से टकराने का दृष्टांत है- तुलसी का जीवन और साहित्य। तुलसी लोक कवि हैं, तुलसी की व्याप्ति बड़ी है"
                                             -  ध्रुवदेव मिश्र पाषाण

"तुलसीदास परहित को सबसे बड़ा धर्म और सारे जग को सियाराममय मानते थे"

उत्तर भारत की सामान्य जनता के जीवन संगी वन चुके हैं तुलसीदास। कह सकते हैं उन्हें श्रमिक और कृषक वर्ग के आह्लाद एवं विषाद, राग और विराग ,आसक्ति और विरक्ति के क्षणों का विश्वसनीय साथी। तुलसीदास  की लोकप्रियता विश्व साहित्य की विरल और मेरी दृष्टि में अकेली घटना है।पराधीनता को सबसे बड़ा दुख मानने वाला यह महाकवि ऐहिक, दैविक और भौतिक तापों की यंत्रणा से जीवन भर जूझता रहा अपनी अपराजेय जिजीविषा के बल पर।
 समग्र मानवता की यंत्रणा- मुक्ति के लिए रामराज्य की उनकी संकल्पना त्रयतापों  से मुक्त मानवीय उदारता और आज क्षी्ण होती सहिष्णुता को बल देने वाली संकल्पना है, आज के वक्त में एक युटोपिया ही सही।
 महाकवि की जयंती के अवसर पर निवेदित है प्रणति में मेरी एक कविता भी।

हे गोसाईं तुलसीदास

हे गोसाईं तुलसीदास ! 
कौन -सा ईनाम पाए थे तुम जमाने से
कोई जागीर ? कोई मठ, लाख दो लाख टके ? 
क्यों नहीं बन पाई कविता तुम्हारे लिए कामधेनु का धन ?

हे सा! हे सिंह! हे सपूत ! तुमने लीक छोड़ी /
लीक आगे बढ़ गई

तुम ही थे जिसके लिए बांसुरी धनुष बन गई।
न तब- न अब- कभी तो नहीं जुगाड़ पाई अंखगर कविता जागीर मठ -लाख दो लाख टके ?
दरद तुम्हारी कविता की रीढ़ था, दरद से जन्मे थे राम
हे गोसाईं महाराज!
न जाने कब रंग लाएगा हमारी कविता का दरद ?
जिसकी रीढ़ में रिस रहा है तुम्हारे कविता का दरद !
हे गोसाईं महाराज!
तुम्हारे दौर में हुआ करता था
एक बड़ा शाहनुमा किमियागर
जिसके सिंहासन के पायताने
तराश- तराश कर रखे गए थे मुल्क भर के नवरत्न
मगर तुम्हारा  तो अंतर प्रकाशित था 
अपनी रत्ना की प्रभा से 
कौन था जौहरी 
जो कर सकता साहस उस महारत्न की तराश का?
जिसके लिए निछावर है
हर समझदार के हृदय का आसव !
हे गोसाईं तुलसीदास, 
कम नहीं तंग हुए थे 
तुम धर्म की हेरा फेरी में कंठी बदलते पंडों  से 
कविता तक तो चुरा लेना चाहते थे सठ!

मगर बड़े ताकतवर निकले तुम्हारे राम
लोगों का मन पहचान गए विश्वनाथ
फिर कौन काटता तुम्हारी कविता पर उनकी सही को?
हे गोसाई जी महाराज !
क्या सबसे बड़ा ईनाम नहीं है यह
आज भी कवि हो तुम लोगों के मन के.
हे गोसाई जी महाराज!
रत्ना से राम तक कौस्तुभ उमर की आभा से प्रदीप्त है तुम्हारा काव्य पथ !

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