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डॉ राधाकृष्णन् का शिक्षा दर्शन और शिक्षा व्यवस्था

* शिक्षक दिवस 5 सितम्बर पर विशेष आलेख

• विभूति नारायण ओझा



1954 में भारत रत्न की गरिमायी उपाधि से अलंकृत  तथा 1962 में भारत का राष्ट्रपति निर्वाचित होने वाले डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म मद्रास के तिरुपल्ली गाँव में 5 सितम्बर 1888 को हुआ था। आप मूलतः शिक्षक शिक्षाशास्त्री दार्शनिक थे इसी कारण आपका जन्म 5 सितम्बर को प्रतिवर्ष शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। डॉ राधाकृष्णन का शिक्षा दर्शन अनुकरणीय है।

शिक्षा वास्तव में दर्शन पर आधारित है। इस धारणा की पुष्टि इससे होती है कि जो महान दार्शनिक रहे वे ही महान शिक्षा शास्त्री रहे। यह इतिहास सम्मत बात है कि विश्व के महान विचारक अपने ऊषाकाल में दार्शनिक थे लेकिन बाद में शिक्षा शास्त्री हो गए। इस दिशा में सुकरात, प्लेटो लॉक कमनियस रुसो. फ्रॉबेल डी. पी. अरस्तु आदि पाश्चात्य दार्शनिकों का उल्लेख कर सकते है इसी प्रकार भारतीय चिन्तकों में जगदगुरु शंकराचार्य गांधी टैगोर अरविन्द घोष डॉ० राधाकृष्णन, महर्षि दयानंद और स्वामी विवेकानंद के नाम उल्लेखनीय हैं। इनका दर्शन और शिक्षा दोनों क्षेत्रों में महान योगदान है। इन समस्त दार्शनिकों द्वारा लिखित कृतिया दर्शन की ही महान कृतिया नहीं है, अपितु शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका अद्वितीय स्थान है।

शिक्षा हमारी भावनाओ इच्छाओ विचारों व अन्य गुणों को समायोजित की हैं। यह हमें समाज के साथ में समाज के लोगों के साथ समायोजन करना सिखाती जिससे वर्तमान सामाजिक व्यवस्था विकसित व व्यवस्थित होती। शिक्षा हमारे लिए बहुत जरूरी है क्योंकि शिक्षा जीवन अनुभवों के द्वारा जीवन के लिए तैयारी है। यह भी कहना संतोषजनक है कि शिक्षा केवल जीवन के लिए तैयारी नहीं है. यह अनुभवों को बांटना व प्रदान करना है, इसलिए शिक्षा एक जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है और सर्वत्र हम अनुभवों से सीखते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अनुभव प्राप्त करता है तथा अनुभव एक निश्चित स्थिति या अवस्था है। प्रत्येक पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी से पैतृक रूप से शिक्षा ग्रहण करती है।

वर्तमान में हमारी शिक्षा व्यवस्था का कोई कारगर लक्ष्य नहीं है। सब कुछ मशीन की भांति चल रहा है। विद्यालयों से कैसे उत्पाद निकल रहे हैं। उसकी गुणवत्ता क्या है गुणवत्ता में कमी के क्या कारण रहे उन्हें कैसे दूर किया जाए ये सब ऐसे बिन्दु है जिन पर निरन्तर एवं गम्भीरता से कार्य करने की आवश्यकता है। इस तरह वर्तमान परिस्थितियों में जब देश बेरोजगारी, आतंकवाद अशान्तपूर्ण वातावरण से घिरा हुआ है ऐसी परिस्थितियों का मुकाबला सिर्फ उचित शिक्षा द्वारा ही किया जा सकता है। वर्तमान में अगर उचित एवं आवश्यक शैक्षिक विचारधारा जिनके अध्ययन द्वारा वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आये दोषों को दूर किया जा सकता और देश में शान्ति की स्थापना की जा सकती है। आज हमें उन नवीन मूल्यों, आदशों की आवश्यकता है जो किन्ही पूर्वाग्रहों सूत्रों एवं समीकरणों से पूर्णतः मुक्त मानव जीवन की उन्नति मानव को स्वयं समझने व विकास में सहायक हो।

शिक्षा का लक्ष्य और व्यक्तित्व का विकास दोनों ही शिक्षा दर्शन पर आश्रित है। शिक्षा दर्शन के बिना शिक्षा उद्देश्यपूर्ण होना और चरित्र में बदलाव होना बंद हो जाएगा। हमारी युवा पीढ़ी की अनुशासनहीनता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। युवा पीढ़ी में आदर्शों की कमी और सामाजिक व नैतिक मूल्यों की कमी कई देशों में गंभीर चिंता का कारण बन चुकी है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। डॉ० राधाकृष्णन ने कहा है- हम कह सकते हैं अगर शिक्षा विद्यार्थियों में आदरणीय भावना पैदा नहीं कर सकती तो वह शिक्षा सम्पूर्ण नहीं है। अगर एक राष्ट्र अपने युवाओं की ऊर्जा को सही मार्ग देना चाहते हैं तो इन्हें शिक्षा के कुछ उददेश्य और लक्ष्य निश्चित करने चाहिए। इस वर्तमान युग में विद्यार्थी लक्ष्य के प्रति अनिश्चित है। उनमें सामाजिकता का ह्रास हो रहा है। विद्यार्थी राष्ट्र का भविष्य होते हैं। डॉ० राधाकृष्णन इसका एक महत्वपूर्ण कारण शिक्षा व्यवस्था का त्रुटि पूर्ण होना बताते हैं जो इसके लिए जिम्मेदार है।

आज भारत में प्रमुख समस्या शिक्षित बेरोजगारी की है और इससे उत्पन्न हुई अति भयंकर समस्या आतंकवाद की है। ये समस्यायें देश को पंगु बना रही है। चोरी और का वातावरण फैला रही है। आज देश गम्भीरगम्भीर परिस्थितियों से गुजर रहा है. पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति के आचरण की वजह से हमारी युवा पीढ़ी दिशा भ्रमित हो रही है। खान-पान पहनावा,सांस्कृतिक कार्यक्रम विदेशी वस्तुओं का उपयोग बढ़ती नशा प्रवृत्ति आदि सभीसभी पाश्चात्य संस्कृति की चपेट में आते जा रहे हैं। अंग्रेजी चैनलों की बाढ़ सी आआ गई है जो युवा वर्ग को हमारे संस्कारों से विमुक्त कर रही है।

अगर ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति का अस्तित्व ही मिट जायेगा हमारी शिक्षा ही हमारी संस्कृति व सभ्यता की रक्षा कर सकती है अगर शिक्षा ही दोषपूर्ण हो तो उससे रक्षा की आशा भी नहीं की जा सकती है। आज वर्तमान में जो हम देखते पढ़ते लिखते युवा इधर-उधर शिक्षा प्राप्त करने के बाद मटकता रहता है महंगी शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी वो अपना या अपने परिवार का पालन पोषण नहीं कर पाता है तो वह गरीबी की मार से हताष बुरे मार्ग की ओर अग्रसर होता है। वर्तमान में जो आतंकवाद का तांडव नृत्य हो रहा है उसमें अधिकतक पढ़े लिखे युवा ही है। कारण है उन्हें सरकारों से युक्त शिक्षा नहीं मिली उन्हें रोजगार आत्मनिर्भर बनाने वाली शिक्षा नहीं मिली फलस्वरूप उन्होंने यह मार्ग यह मार्ग अपना लिया।इस संदर्भ में निश्चित रूप से स्वामी राधाकृष्णन द्वारा सुझाया गया एवं व्यवहार में रूपान्तरित किया गया उनका दर्शन निश्चित ही एक ऐसी व्यवस्था को विकसित करेगा, जिसमें बालक के व्यक्तित्व का विकास समन्वित रूप में होगा तथा वह घृणा, विद्वेष, क्रोध व लालच को त्यागकर एक स्वाभीमानी स्वावलम्बी, दायित्वमान के फलस्वरूप ही उसमें सर्वधर्म सम्भाव, अहिंसा तथा वसुधैव कुटुम्बकम का भाव परिलक्षित होगा ऐसा नागरिक समाज, राष्ट्र एवं विश्व में शांतिपूर्ण वातावरण के निर्माण में सहायक होगा।

डॉ राधाकृष्णन जीवन में भौतिक सुखों को अपराध और भ्रष्टाचार की ओर ले जाने वाले मानते थे जिनसे निजात पाने हेतु वे नैतिक मूल्यों की स्थापना को आवश्यक समझते थे इसीलिए हम उनके शिक्षा दर्शन में नैतिक शिक्षा को विशेष महत्त्व पाते हुए देखते हैं। अपने शिक्षा दर्शन में इसीलिए उन्होंने सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श को मान्यता दी। डॉ. राधाकृष्णन भौतिक विकास को अंतिम नहीं मानते थे। इसी से अपने शिक्षा दर्शन में उन्होंने भौतिक विकास के अतिरिक्त शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास अर्थात सर्वांगीण विकास को महत्व दिया है। आज आवश्यकता इस बात कि है कि हम शिक्षा शास्त्रियों के विचारों को आत्मसात करते हुए आमजन के लिए अनुपयोगी शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन के लिए संघर्ष करें।

संप्रति: संपादक, पतहर पत्रिका, देवरिया

संपर्क: 9450740268

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