* भोजपुरी कवि पंडित राम नवल मिश्र की 98वीं जयंती (2 जनवरी) पर विशेष
सम्मान और पुरस्कार से दूर गांव में बैठ कर देश दुनिया, पूंजी व सत्ता के चरित्र को अपने जनपक्षीय दृष्टि से देखते रहे और देश की मेहनतकश आबादी की चिंताओं के साथ खुद को जोड़ कर उनके लिए हमेशा अपनी लेखनी के माध्यम से संघर्ष करते रहे।
(विभूति नारायण ओझा)
राप्ती और गोर्रा के दोआब में जन्मे भोजपुरी कविता के सशक्त हस्ताक्षर रहे पंडित राम नवल मिश्र की आज 98 वीं जयंती है। जब थे तब हर साल आज के दिन अपने पुश्तैनी घर पर देशभर के कवि और कवयित्रियों, रचनाकारों को बुलाकर कवि सम्मेलन का आयोजन करते थे। सुदूर ग्रामीण में नदियों के किनारे बसे उनके गांव डुमरी खुर्द में जाने से महानगरों में रहने वाला कोई साहित्यकार व कवि मना नहीं करता था।ऐसा सिर्फ इसलिए था कि पंडित राम नवल मिश्र एक विलक्षण प्रतिभा के कवि थे, बाजार व छपास से दूर दशकों से भोजपुरी भाषा के प्रति उनका लगाव व समर्पण तथा उनकी कविता में जनपक्षधरता की शानदार उपस्थिति थी। वे जीवन भर अपनी भोजपुरी कविता के माध्यम से समाज राजनीति व अंधविश्वासों पर तीखा हमला करते रहे।
2 जनवरी 1922 को पूर्वांचल के गोरखपुर जनपद के गांव डुमरी खुर्द में जन्मे पंडित राम नवल मिश्र का लगाव भोजपुरी भाषा के प्रति शुरू से ही था। लेकिन छपास से दूर रहने के कारण 2012 तक उनका कोई भी रचना संग्रह नहीं आ सका जबकि उनके गीत हमेशा गुनगुनाए जाते रहे, आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से उनके गीत व कविताएं प्रसारित होते रहे। सन 1943 से 1949 तक गांधी आश्रम तथा 1949 से 1982 तक ग्राम पंचायत अधिकारी के पद पर उन्होंने शासकीय सेवा भी की।
जीवन के अंतिम तीन वर्ष पूर्व एक साथ तीन संग्रह सूखी गईल नेह कऽ नदी, पिन जैसे चुभते हैं दिन और सतंजा 2012 में तथा नवल हजारा (दोहा संग्रह) 2013 में प्रकाशित हुए। आज जब भोजपुरी भाषा पर बाजार का हमला हो रहा है, जीवन के यथार्थ को भुलाकर मुनाफा और अपसंस्कृति फैलाने की कोशिश हो रही है, तब ऐसे समय में पं. रामनवल मिश्र जैसे भोजपुरी के महाकवि को याद करना जरूरी महसूस होता है।
राम नवल जी की कविताओं में कछार का ग्रामीण यथार्थ व हमारे समाज में गिरते मानवीय मूल्य राजनीति के सिद्धांत विहीन होते समय को महसूस कर सकते हैं। गांव पर बाजार के प्रभाव को उनकी कविताओं में स्पष्ट देखा जा सकता है। वे राजनीतिक विसंगतियों पर भी तीखा हमला करते रहे, राम नवल जी सामाजिक राजनीतिक यथार्थ को पाठकों के सामने प्रत्यक्ष रख देते हैं।
उनकी चर्चित कृति सूखी गई नेह कऽ नदी की एक प्रसिद्ध कविता द्रष्टव्य है-
' टका सेर भाजी टका सेर खाजा,
खा कउआ मामा मोटाई गईल जोनहरी,
उपदेसवा देत हऽ अहिंसा कऽ चीता,
मुडिकटवे बांचे रामायन आ गीता।'
खा कउआ मामा मोटाई गईल जोनहरी,
उपदेसवा देत हऽ अहिंसा कऽ चीता,
मुडिकटवे बांचे रामायन आ गीता।'
भोजपुरी कविता के माध्यम से उन्होंने बच्चों के लिए भी कुछ रचने का काम किया था-
आवऽ आवऽ चान मामा हमारे दुअरिया, सोन कटोरी में दूध भात खाइब, मामा हम तोहार बहुत गुन गाइब'।
मिश्री की कविताओं में टूटते पारिवारिक रिश्तो की शिनाख्त भी दिखलाई पड़ती है। गांव में खत्म होते रिश्ते शहरी बाजारी संस्कृति के प्रभाव पर भी चिंता व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि-
'सहरिया में मोर गउवां हेराइल, रितिया पिरितिया उ गितिया सेराइल, संस्कृति पऽ हमरे लागल अस लासा, बदलि गईल बोली, बदलि गईल भाषा।'
पंडित राम नवल जी राजनीतिक विद्रूपताओं पर भी व्यंग्य करते हैं-
'हम घर के घूर बना देइब तऽ तोरे बाप कऽ का.'
बेरोजगारी जैसी भयंकर युवाओं की समस्या पर लेखनी चलाते हैं-
'रोजी रोजगार सब होई जात मारी, जियले क कुछउ न बचल आधार बा।'
आज के कठिन और संवेदनहीन होते जा रहे पूंजीवादी समाज में रामनवल मिश्र जैसे भोजपुरी के रचनाकारों की रचनाओं को पढ़ने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। नौ दशक से अधिक समय तक निरंतर लेखन में सक्रिय रहे मिश्र जी जीवन के अंतिम क्षणों में भी लगातार साहित्य सेवा में संलग्न रहे और अपनी कलम को हमेशा धारदार बनाए रखें। सम्मान और पुरस्कार से दूर गांव में बैठ कर देश दुनिया, पूंजी व सत्ता के चरित्र को अपने जनपक्षीय दृष्टि से देखते रहे और देश की मेहनतकश आबादी की चिंताओं के साथ खुद को जोड़ कर उनके लिए हमेशा अपनी लेखनी के माध्यम से संघर्ष करते रहे। उनकी जयंती पर हम उनको सादर स्मरण करते हैं।
संप्रति : संपादक पतहर-पत्रिका
मोबाइल : 9450740268
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