पतहर

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जीवन के छोटे-छोटे सत्यों के कहानीकार रहे गिरीश जी

(आशीष सिंह)।
जीवन के छोटे छोटे सत्यों को कहानी का विषय बनाया है मैंनें ' ऐसा कहने वाले वरिष्ठ कथाकार गिरीशचन्द्र श्री वास्तव कल हमारे बीच सशरीर नहीं रहे  । उम्र के पचासी बरस में भी युवाओं जैसी ताजगी लिये इस  कथाकार के जीवन के आखिरी कुछ महीने बेहद  कष्टकारी रहे। कथाकार गिरीशचंद्र जी का सानिध्य हम युवाओं को हमेशा मिलता रहा है । वे महज एक कहानीकार-संपादक नहीं बल्कि एक साहित्यिक सरोकारों को जगाने वाले सचेत मसिजीवी थे  । देश-दुनिया की ताजातरीन स्थितियों की अद्यतन जानकारियों से अपने को अपटूडेटकरते  रहने वाले गिरीश जी हम सबको बार -बार अपने समय-समाज को गौर से देखने समझने औ उसे रचनात्मक ढंग से व्यक्त करने के लिए उकसाते थे। लगातार प्रेरित करने की यह भूमिका आज के आत्ममुग्ध साहित्य जगत में लगभग पिछड़ती जा रही है । ऐसे समय में गिरीश जी जैसे साहित्यकारों की पहलकदमियों से  जाने कितने युवाओं को आगे बढ़कर अपनी साहित्यिक क्षमता निखारने का मौका मिला है । ऐसे महत्वपूर्ण साहित्यिक शख्सियत गिरीशचंद्र जी के रचनात्मक योगदान पर मुख्तसर सी कुछ बातें साझा करना आज की सामाजिक जरूरत ही नहीं  बल्कि एक सहज जन कथाकार का स्मरण भी है ।
          कथाकार गिरीशचन्द्र श्नीवास्तव जी का जन्म गोरखपुर , कुशीनगर में तीन अगस्त १९३३  को हुआ था ।हालांकि उनका पैतृक निवास गाजीपुर था । उनके पिता कचहरी में सेवारत थे । इस प्रकार गिरीश जी का बचपन गोरखपुर में ही बीता । युवाकाल में गोरखपुर के   रेलवे विभाग नौकरी मिल गई , जहाँ में काम करने के  दौरान आम जन की जिंदगी से जुड़ने - महसूसने का मौका मिला । रामदरश मिश्र , परमानंद श्री वास्तव , कमलेश , देवेंद्र कुमार बंगाली , हरिहर सिंह आदि लेखकों -रचनाकारों के साथ साहित्यिक दुनिया में आवाजाही करने का नतीजा रहा कि वे आगे चलकर एक महत्वपूर्ण कथाकार के रूप में स्थापित हुए । यही नहीं बल्कि यह भी कह सकते हैं कि "संगम संस्था '" की छोटी छोटी गोष्ठियों से जुड़े तमाम रचनाकार  आगे चलकर साहित्यिक जगत में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप कारी   रचनाकार बने ।     बहरहाल  गिरीश जी  रेलवे की नौकरी करते हुए आगे की पढ़ाई करते रहे और कालांतर में अंग्रेजी विषय के अध्यापक बनकर सुल्तानपुर जिले के गणपत सहाय डिग्री कालेज आगये ।आगे चलकर उनकी रचनात्मक कर्मभूमि का अहम हिस्सा बनकर सुल्तानपुर उनसे जुड़ा रहा । गोरखपुर के क ई युवा रचनाकारों ने मिलकर एक साहित्यिक संस्था ' संगम ' की स्थापना सन् 1961 में की । जिसमें साहित्यिक रचनाओं का पाठ व उनपर परिचर्चा आयोजित की जाती थी । इसी संस्था ने   सन् 1968 में पूर्वांचल के कथाकारों का एक प्रतिनिधि संकलन प्रकाशित किया ।  जिसमें   में गिरीश जी की  कहानी "जाने -पहचाने अजनबी ' भी शामिल की गई , । कदाचित  गिरीश जी की पहली प्रकाशित  कहानी भी यही है , हालांकि साहित्यिक जगत में उन्हें' करवटें ' व "कांटा ' नामक कहानियों से गम्भीरता से लिया गया । जाने माने सम्पादक बद्रीविशाल पित्ती के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका "कल्पना "के जून , 1968 के अंक  में  प्रकाशित कहानी  "कांटा ' पर टिप्पणी करते हुए विवेकीराय बताते हैं कि " कड़वे यथार्थ से गुजरते मध्यवर्गीय व्यक्ति की सच्चाई अभावग्रस्तता के विविध मोर्चों पर लड़ाई की सच्चाई है जिसे जीते व्यक्ति टूट रहा है । "   कांटा ' कहानी के माध्यम से कथाकार एक निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति की जीवनस्थितियों की वास्तविक तस्वीर पेश करता है । कशमकश , असहायता बोध , झूठी दिलासा व आन्तरिक कचोट उभारती  यह कहानी बिना किसी अतिरिक्त कथन के महज स्थितियों के जरिये सबकुछ बयान कर देती है । कलम , पेंसिल की मांग करते बच्चों को पिता किसी बहाने चुप करा देता है क्योंकि आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है ।परिणामस्वरूप उसके दोनों बच्चे स्कूल टीचर की मार से डरकर जिदभरी मनुहार करते हैं , वह उन्हें डांट देता है । दूसरी तरफ अपने तीसरे बच्चे को लेकर उन्हें डाक्टर को दिखाने भी जाना है ।एक रिक्शा पर परिवार सहित वे सब डाक्टर के पास बच्चे को दिखाते हैं ।वह टंगी तस्वीर के बहाने कहानी असमय बुजुर्ग होने की ओर ढकेली जा रही महिला की कहानी मानो कह दे रही है "  वंदना ने दीवार पर टंगी तस्वीर की ओर इशारा करते हुए पूछा -- इस तस्वीर को मैने क ई जगह देखा है , सीतापुर अस्पताल में आँख दिखाने गई थी तो वहां भी डाक्टर साहब के कमरे में यही तस्वीर टंगी थी । कहने के साथ एक मर्मांतक पीड़ा उसके चेहरे पर उभर आयी , जो उसके पियराये चेहरे की रिक्तता को और भी गहरा कर रही थी।किन इस पीड़ा के बावजूद वह उस तस्वीर को बार बार देखती रही । वह तस्वीर एक नर्स की थी जो चुप कराने की मुद्रा में तर्जनी को होठों पर रखे हुए थी । डाक्टर साहब की कुर्सी के ठीक बांये वाली दीवार पर यह तस्वीर टंगी थी । तस्वीर के नीचे लिखा था --कृपया शान्त रहिये । मैंने वंदना से कहा कि इस तरह की तस्वीर फर्म वाले ने विज्ञापन के लिए बनवाई है । जो डाक्टरों के मरीज के लिए भी 'कृपया शांति रखिये ' के हिदायत के रूप में नर्स की तस्वीर काफी आकर्षक लग रही थी । उसके दूध धुले सफेद पोशाक और भी फब रही थी । मरमरी बांहें , दो स्नेहसिक्त खोजती आँखें और नारंगी की फांक-सी ओठों से फूटती हुई दबी मुस्कान - ठीक ऐसी ही तो थी मेरी वंदना , जब मैं उसे ब्याह कर लाया था । "  लौटकर आते हुए वे तमाम योजनायें बनाते हैं , अच्छी डाइट की योजना आदि आदि । और रात में सो रही बच्ची जब सपने में बड़बडाते हुए अपनी टीचर से न मारने के लिए कहती है । यह पूरी स्थिति एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार की सिकुड़ती आकाँक्षाओं और बढ़ती जरूरतों को हमारे सामने पूरी सहृदयता से सम्प्रेषित करती है । महज मार्मिक ही नहीं बल्कि एक परिवार के जरिये एक बड़े समाज की जिंदगियां हमारे सामने आ खड़ी होती हैं इस कहानी के जरिये ।"करवटें" अमृतराय के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका  "नई कहानियां"  के जुलाई  १९६९ के अंक  में प्रकाशित  हुई  थी । इस कहानी की महत्ता  इसी से आंकी जा सकती है    कि जाने माने कथाकार  विवेकी राय ने "ज्ञानोदय '  दिसम्बर १९६९  में सर्वेक्षण  कर   एक लेख   में  उस समय निकलने वाली  तमाम  पत्रिकाओं का जिक्र  करते हुए कहते हैं कि  "  पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित  कहानियों  का  अध्ययन  करने के बाद इस  नतीजे पर पहुँचा  हूं  कि भारत में भले ही गांव ही गांव  हैं  परन्तु  भारतीय कहानियों  में कहीं  उनका  पता नहीं  है । दो - ढाई सौ  कहानियों में सिर्फ  एक ही प्रामाणिक  कहानी  ग्राम   जीवन पर मिली है :  वह है ' करवटें "  जिसके लेखक  हैं गिरीश चन्द्र श्रीवासतव । "  करवटें ' वह कहानी जिससे कहानीजगत में गिरीश जी एक मुकम्मल पहचान बनी थी ।यह कहानी जहां एक तरफ सन् साठ -पैंसठ सरकारी तंत्र की तमाम योजनाओं की पोल खोलती है वहीं दूसरी तरफ निम्नमध्यवर्गीय जन की शहर से गांव से शहर के बीच झूलते दुविधाग्रस्त मन को टटोलने का काम करती है ।  
निम्नमध्यवित्त परिवार के लोगों की यह कहानी है जितनी सन् 67 के जमाने में सच थी कमोबेश आज भी  । गांव जा रहा नायक  अपने चाचा के बारे में सोचता जा रहा था " वह सोचता जा रहा था कि चाचा जी शायद अब नहीं बचेंगे । मुन्नू भइया का पत्र उसके मस्तिष्क में उभर आया , ' चाचा की तबियत बहुत खराब है । चारपाई पकड़ ली है । तुम्हें देखना चाहते हैं । चिट्ठी को तार समझकर फौरन चले आओ , वरना पछताना पड़ेगा । ' और उसकी शंका दृढ़ होती जा रही थी कि चाचा जी अब नहीं बच सकते । उसकी बेचैनी बढ़ने लगी । लेकिन मन ही मन भगवान से मिन्नत करने लगा कि उसके चाचा कम से कम दो-तीन साल और जीवित रह जाते ताकि उन्हें अपने वहाँ ले जाकर वह उनकी सेवा का सुअवसर पा सके । " वह सोचता है कि इस बार अपने बच्चे के जन्मदिन पर मामूली खर्चा करेगा , अपनी पत्नी के स्वेटर को अगले बरस तक के लिए टाल देगा आदि आदि दूसरी कटौती करके बचे हुए पैसों से काट कपटकर चाचा को किसी अच्छे डाक्टर को दिखाकर इलाज करायेगा ।  कथानायक गांव की पगडंडियों पर कदम रखते ही पंचवर्षीय योजनाओं के तहत हुए  दिखावटी विकास से टकराता है । 'उसका पांव अचानक ही फिसल गया । औंधे मुँह गिरते-गिरते बचा । कम्बल और एअर बैग पानी में जा गिरा । पतलून में कीचड़ लग गयी । उसे ख्याल आया कि यह नाला जिसमें चकत्ता-चकत्ता पानी इधरउधर रह गया है , नलकूप विभाग द्वारा ही बनवाया गया होगा , क्योंकि पिछली बार जब वह यहाँ आया था इस प्रकार का कोई नाला-वाला यहाँ नहीं था । "  खैर कहानी आगे बढ़ती है । गांव में चाचा व उसके भाई अच्छी आवभगत करते हैं । पैसे के अभाव में गिरता पुराना घर , अधिया पर जोती जा रही खेती , सूखते बाग देखकर उसके मन में मौजूद हराभरा गांव  उभरने लगता है । दो जोड़ी बैल के अभाव में खेती पराये  हाथों में जा रही है , यह सुनकर वह खुद प्रस्ताव रखता है कि जल्दी ही दो सौ रूपये बैलों के लिए भेज देगा । चूल्हे पर बनती बाजरे की सोंधी रोटियों को खाते-खाते उसे अपनी भाभीजी के फटी धोती खटकने लगती है , वह कहता है कि इस बार आयेंगे तो आपके लिए धोती व दूसरे कपड़े लेकर आयेंगे ।  भतीजा अपने कुरते की डिमांड करता है , शहर आने की मनुहार भी करता है । होते करते नायक अगले दिन सबसे विदाई लेकर शहर की ओर चल पड़ता है । खचाखच भरी ट्रेन । बढ़ते चावल के दामों की चर्चा । नायक बर्थ पर पसरा-पसरा आगे की योजना बनाने लगा " वह सोचने लगा कि दीनू के वर्षगांठ का खर्चा मँहगी होने के कारण इस वर्ष अंदाज से अधिक हो जायेगा .....   अब की  म ई में उसने विमला से नैनीताल घूमने का वायदा किया है । कम से कम पन्द्रह दिन भी  न रहे तो पहाड़ पर सैर करने क्या आनंद ?  -----------   वह फिर उठ बैठा । खिड़की के बाहर उसने झांका कि चाय वाले को बुलाये । लेकिन चाय वाला दूर जा चुका था , अन्तिम ट्यूबलाइट के पास । ठंडक के कारण बाहर निकल चाय वाले के पास जाकर चाय पीने का साहस उसके पास न रहा । 'ठंड अधिक है ' उसने मन ही मन सोचा । स्वेटर से रत्नों का काम नहीं चल सकता । कहीं सर्दी लग गयी तो वह और भी मुश्किल में पड़ जायेगा । उसका स्वेटर बनना जरूरी है । ......    "  
        पूरी कहानी किसी प्रकार के अतिरिक्त आदर्श को दिखाने की कोशिश नहीं करती बल्कि एक मामूली आया वाले व्यक्ति की मानसिक दुविधा को बड़ी शिद्दत से हम सबको महसूस कराती चलती है । हम लम्बी-लम्बी योजनाएं बनाते जरूर हैं लेकिन हमारी स्थितियां  हमें इधर से उधर धकेलती रहती हैं । सामान्य जीवन की इन्हीं जद्दोजहदों को दर्ज करती कहानियों के लेखक है गिरीश चन्द्र श्री वास्तव ।इस कहानी में नेहरू की पंचवर्षीय विकास योजना के गढ्ढे हैं तो सहकारी खेती की असलियत बेपर्द हुई है । 
इसी क्रम में तीसरी बहुचर्चित कहानी "हड़ताली ' जिसे कलकत्ता से निकलने वाले एक व्यवासायिक पत्रिका गल्पभारती के दीपावली विशेषांक में सन् 1968 में प्रकाशित हुई थी । रेलवे कर्मचारियों की एक हड़ताल को केंद्र में रखकर लिखी गई इस कहानी में लेखक अपनी तरफ से कुछ नहीं कहता बल्कि स्थितियों के माध्यम से आम कर्मचारियों के विविध भाव को दर्ज करते हुए नेतृत्व कारी यूनियन के नेताओं के ढुलमुलपन को रेखांकित करती है ।इस कहानी में कुछ कर्मचारी हैं जो हड़ताल के लिए निकाले जाने वाले जुलूस में शामिल तो होते हैं , लेकिन उस हड़ताल के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं , वे किसी तरह बचबचाकर निकल करके उस छुट्टी का इस्तेमाल तफरीह करने के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं । सिनेमा देखने व घूमने के मकसद से वे जुलूस में आगे आगे चलकर कहीँ से मौका पाकर फूट लेने का उपक्रम करते हैं ।जगह -जगह पुलिसिया बैरकेंटिंग , कर्मचारियों का आक्रोश पूरी कहानी में वास्तविक यथार्थ को दर्शाती मिलती है । इसी दौरान वे पकड़ भी लिए जाते हैं । बाद में किसी तरह अपने को विद्यार्थी बताकर छूटते हैं , बाहर पता चलता है लोग उन्हें ढूंढ रहे हैं क्योंकि नेताओं ने' हड़ताल ' तोड़ दी है ।यह सुनते है वे चारों फैक्ट्री न जाने का इरादा करते हुए नेताओं के मौकापरस्ती पर थूकते हैं और सचमुच के हड़ताली बन जाते हैं । मनुष्यों के अंदर उठने वाली छोटी छोटी आकांक्षाओं , मनोभावों व द्वन्द्वों को उभारती है यह कहानी है ।इसी तरह अमृतराय के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका 'न ई कहानियां ' के अप्रैल , 1970 के अंक में प्रकाशित "मेजबान ' कहानी निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति की स्थिति को बड़ी खूबसूरती से उठाती है । वह दूर से आये अपने मित्र को अच्छे से आवभगत करना चाहता हैं लेकिन आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है , वह उसके सामने अपनी स्थिति रखना भी नहीं चाहता है ।बिल भुगतान के लिये नायक पहले किसी सहकर्मी की राह देखता है जिससे उधार ले सके , फिर अपनी घड़ी गिरवी रखकर चुकता करना चाहता है ।लेकिन उसे मौका नहीं मिलता । उसका ऊहापोह , असमंजसता अंदरखाने में जारी है जबकि बाहर बाहर बड़ी बेबाकी से बतिया रहा है ।इसी बीच उसका आया हुआ दोस्त बातें करते हुए बिना उसको कुछ जताये बिल भुगतान कर देता है । सहानुभूति के पक्ष को उभारना 'मेजबान ' कहानी का केंद्रीय भाव है । 'यहाँ मेजबान की पीड़ा , उसके संघर्ष को  कथाकार ने बड़े कलात्मक ढंग से व्यक्त करता है । वह दृश्य चित्र अपने द्वन्द्व के साथ पाठकों को अपने साथ ला खड़ा करता है जहां पर मेजबान बिल भुगतान के लिए देखता है कि कोई मित्र मिले तो उधार ले लें। फिर घड़ी को रखने की सोचता है ।आखिर अपनी इच्छा कैसे पूरी हो ।अन्हत में बाहर निकलकर वह पान व सिगरेट का आर्डर देकर अपनी इच्छा पूरा करता है ।बड़ी इत्मिनान से सिगरेट के धुंवे को छल्ले के रूप में फेंक रहा है । इस प्रकार मानवीय पीड़ा को लेखक उभारता है ।
 "दिवंगत ' कहानी के बहाने मध्यवर्ग के खोखलेपन को उभारता है । हर कहानी में लेखक किसी न किसी रूप में मौजूद रहता है और यहां तक कि अपने पारिवारिक जीवन के कटु यथार्थ और जीवन के द्वन्द्व व खोखले पन की खिल्ली उड़ाने में भी पीछे नहीं रहा है कथाकार ।। दोस्ती '  कहानी  मध्यवर्गीय नियति  की शानदार  कहानी  है ।"गांव  की ओर वापस जाने की चाह " महज चाह बनकर रह जाती है । अपने द्वन्द्व को ऊहापोह को कथानायक से  एक संवाद  दृष्टव्य  है  ।गांव की खेती के बारे में -------

  " अधिया पर ही क्यों  नहीं  उठा देते कुछ राशन  तो मिलेगा ।
"  अधिया की खेती से नुकसान  ही नुकसान है  ।               आखिर  क्या   करोगे  सड़ा कर  !
'  अपनी जड़  को काट दूं ! यह कैसे  हो सकता  है ।'

क्या जमीन से मोह और नये पन की ओर लालायित  हमारी मनोदशा  को  , तत्कालीन  मध्यवर्गीय विडंबना की कहानी नहीं  है । भय , असुरक्षा , द्वन्द्व और  भावुकता  की मिली जुली अभिव्यक्ति  । 
वहीं  ' सपने का सच "  संकलन की कहानी" एक वाजिब आदमी '   में किस प्रकार छोटी पूंजी के लोग तबाह होकर सर्वहारा करण की ओर बढ रहे हैं । जबकि जीवन की छटपटाहट बारम्बार  चुनौती पेश कर रही है । "एक वाजिब आदमी " 1992 के नवभारतटाइम्स में विद्यानिवास मिश्र के सम्पादन में छपी थी ।यहाँ एक अफसरान के दोहरे चरित्र को दिखाया गया है जो किसी सामान्य आदमी की ईमानदारी व दृढता को अपने अफसरी वजूद के लिए चुनौती मानता है । वहीं दूसरी तरफ बेहद मामूली संसाधनों पर आश्रित होकर अपने काम व वसूल के प्रति दृढ़ वहीद मियां के शानदार चरित्र को हमसे मुखातिब कराती है ।इस  कहानी  का एक उद्धरण  आपके लिए " वहीद मियां की    आत्मा मरी नहीं  है ।  यह जानकर मास्टर को सुकून सा  होता है । "  यही  पढ़ा लिखा तबका एक तरफ अपने  कारीगरों और  मजदूरों से ईमानदारी , मेहनत  और सच्चाई की उम्मीद करता है । जब वह ऐसे  मूल्यों को देखता है तो उसे मानवता पर भरोसा कायम होता है । लेकिन यही तबका  खुद अपनी उन्नति  की खातिर  कुरसी के चक्कर लगाते हुए मिलता है । मध्यवर्ग  की इस दोहरी भूमिका  पर तंज कसते हुए वह कहता  है "  ये  सारे  अफसर आदमी  की खिदमत करने  के आदर्श  को  ताक पर रखकर अपनी कुरसी  का नाजायज  फायदा उठाने में ही अपनी शान  समझते  हैं ।"  
 आवेश , दोस्ती , फैसला , नवागंतुक , दिवंगत , नकारा आदि तमाम महत्वपूर्ण कहानियों के रचनाकार गिरीश चंद्र श्री वास्तव की कुल जमा अट्ठाइस कहानियां ही प्रकाशित हैं । जिन्हें अब तक निकले दो संकलनो "कांटा और अन्य कहानियां ' व सपने का सच में संकलित किया गया है । उनका पहला कहानी संग्रह कांटा और अन्य कहानियां सन् 1977 मेंं प्रकाशित हुआ था जिसमें सन् 65 से लेकर सन् 75 तक के दौर की कहानियां हैं ।जबकि दूसरा कथा संकलन सपने का सच , काफी समय बाल सन 2005 में प्रकाशित हुआ। क ई बार बात चीत में वे बताते थे कि उनकी आठ कहानियां अप्रकाशित हैं जिनपर अभी काम करना है । इन कहानियों व उनके तमाम आलोचनात्मक आलेखों को सामने लाने की जरूरत है ।शायद हिंदी जगत स्वनामधन्य हिंदी सेवी प्रकाशक गिरीश चंद्र श्री वास्तव जैसे सहज -सामान्य जन की मामूली जिंदगी को दर्ज करने वाले रचनाकार का लेखन सामने लाने का जरूरी कर्म करेंगे । 
     इस प्रकार  हम देखते  हैं कि कम कहानियां होने के बावजूद  कहानीकार गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव  की कहानी अपने समय के मध्यवर्गीय जीवन की वास्तविकताओं  की प्रत्यक्ष गवाही देती मिलती हैं । यह हिंदी जगत की अपनी "विशेषता  "है कि वह  ऐसे कथाकारों को याद तक करने में कोताही  करता  है या तब तव्वजो देता है जब वह हमसे दूर चला जाता है । एक रचनात्मक व्यक्ति जितनी संवेदनशीलता से जीवन के अनकहे अंश को छूकर हमें सोचने के लिए प्रेरित करता है क्या उतनी  ही संवेदनशीलता से हम अपने लेखकों को समय रहते उचित दाय प्रदान कर पाता है ? क्या ऐसा ही कुछ गिरीशचंद्र जी जैसे सरल रचनाकारों के साथ नहीं हुआ ।आखिर ऐसे रचनाकारों को किस कीमत पर जगह देना चाहते हैं ?यह सवाल तो बार बार मन में उठता है !!गोरखपुर , सुल्तानपुर , लखनऊ जहाँ भी गिरीशचंद्र जी रहे अपना लिखा हुआ भले ही पीछे रह जाये लेकिन  तमाम युवाओं को लिखने -पढ़ने के लिए प्रेरित करते हुए आगे लाने में कभी पीछे नहीं रहे ।
कथाकार शिवमूर्ति , अखिलेश , हरिभटनागर आदि कई लेखक हैं जो गिरीश जी से मिले मार्गदर्शन को यदाकदा  शिद्दत से याद करते हैं । कथाकार राजेंद्र यादव यूंही नहीं कहते थे कि 'गिरीश जी आपने सुल्तानपुर में इतिहास रचा है , आपने तमाम लेखकों को गोष्ठियों के माध्यम से सामने लाने का काम किया है । "  साहित्यिक पत्रिका 'निष्कर्ष ' ने तमाम नये लेखकों पहली बार जगह देने का काम किया है वे चाहे तब के युवा  दयानंद पांडेय हों या आज के धनंजय शुक्ल जैसे तमाम रचनाकार । यह कम बड़ी बात नहीं है । सन् १९७१ से वे साहित्यिक पत्रिका " निष्कर्ष " का संपादन करते रहे हैं  । कम संसाधन कठिन मेहनत के बूते निष्कर्ष जैसी निकलती रहे । जो होते करते २०११ तक निकलती रही । उस दौरान  एक दुर्घटना हो जाने के चलते पत्रिका  का प्रकाशन  रुका हुआ  है । इसका कहानी अंक  और  कुंवर पाल सिंह  केन्द्रित अंको को काफ़ी   तारीफ मिली  थी । 
उनका  मानना रहा  है कि आदमी अगर स्पष्टवादी  है तो तत्काल खतरा  हो सकता  है लेकिन दूरगामी तौर पर खतरा  नहीं  होता  है । रचना  अपनी गुणवत्ता और सामाजिक  उत्तरदायित्व  के चलते चर्चा में आती है न कि किसी  बडी पत्रिका  में छपने से । वे अपनी  कहानी ' हड़ताली "  का उदाहरण  देते हए कहते  हैं कि यह कहानी कलकत्ता  के एक  व्यवसायिक पत्रिका  में छपी थी । लेकिन अच्छे अच्छे  साहित्यिक प्रेमी और पाठकों की नोटिस  में रही  । रचना अच्छी है तो प्रभावित करेगी । लेकिन लेखक  को यह जरुर  सोचना  चाहिए कि वह क्यों  लिखता  है ।और क्या लिखता  और किसके लिए लिखता  है ।
  आज हमारे बीच गिरीश जी नहीं है , लेकिन उनकी बातें , रचनायें व सबसे बढ़कर बेहतर रचना के मुखर प्रवक्ता की छवि हमारे पास हमेशा रहेगी । सादर नमन ।
 (आशीष सिंह के फेसबुक वॉल से साभार)
  
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