उन दिनों मेरी गर्मी की छुट्टियां चल रही थी और हम सभी गांव पर थे। मैं उस समय कक्षा छ: का छात्र था। हम सभी भाई-बहन बहुत खुश थे कि करीब साल भर बाद हमें गांव आने का मौका मिला था, न कोई होमवर्क था न शिक्षकों का कोई भय। पर इससे आप यह अर्थ मत लगाइए की छुट्टियों में गांव आए बच्चों के सामने समस्याएं नहीं आती। गांव के बड़े बूढ़े उनके ज्ञान की परीक्षा गाहे-बगाहे लेते रहते। अंग्रेजी के ज्ञान की परीक्षा तो सबसे पहले ली जाती, उसके बाद हिंदी और कभी कभी उनसे उनके पिता और बाबा का नाम भी पूछा जाता, और अक्सर बाबा का नाम न जानने पर उनकी खिल्ली उड़ाई जाती। उस समय मेरे गांव में करीब 17-18 शिक्षक थे जो प्राइमरी या हाई स्कूल में पढ़ा रहे थे। उनमें से कुछ अपनी आदतों के कारण बड़े प्रसिद्ध थे, जैसे किसी भी ऐसे वैसे कपड़े में स्कूल चला जाना, स्कूल में रहकर बच्चों से खूब हंसी मजाक करना, किसी छात्र की शिकायत का मनमाने तरीके से निस्तारण करना और स्कूल से आने पर किसी चौक चौराहे पर बैठकर राजनीति की बातें करना। इनमें आधे से अधिक शिक्षक शादियों के मौसम में बस शादियां जोड़ने का काम करते जो पूर्ण रूप से एक सामाजिक कार्य था क्योंकि शिक्षक तो समाज का निर्माण करता ही है। इनमें से 2-4 तो मेरे चचेरे भाई लगते थे, वह तो कुछ नहीं पूछते थे पर कुछ दूसरे शिक्षक कुछ ज्यादा ही उल्टे पुल्टे कर देते तब हम लोग परेशान हो जाए करते। जैसे एक हमारे गांव के शिक्षक ने मुझसे पूछा 'मुर्दा जा रहा है', इसकी अंग्रेजी बताओ? और मैंने जब उसे ट्रांसलेट कर दिया तो उन्होंने पूछा, 'मुर्दा कहीं चलता है?' और उसके बाद वह बड़े जोर से हंस पड़े! एक जने तो अपने पोते को पढ़ाते समय शेर और बाघ के अंग्रेजी नाम में भ्रमित हो गए और अपने मित्र से पूछा कि 'कहो, इ लायन होला जेकरे देह पर लाइनिंग होला न करिया करिया (काला काला)?' कुछ ऐसे ही अक्सर सुनने को मिलता और हम मस्त रहते, इसलिए हमारा बचपन बहुत अच्छा बीता।
हमारे गांव के मास्टर स्वर्गीय चंद्रकेतु दुबे उन प्रश्न पूछने वालों में सबसे अग्रणी थे और उनके प्रश्नों का कोई ओर छोर नहीं होता था। अंग्रेजी उन्हें बिल्कुल नहीं आती थी, हां प्रश्न अवश्य आते थे। कुछ-कुछ आजकल की सरकार की तरह जो बस आदेश देना और प्रश्न पूछना जानती है, उत्तर देना नहीं! कई चालाक बच्चे यह बखूबी जानते थे, और उनके प्रश्न पूछने के पहले उनसे ही प्रश्न पूछ देते। मैंने सुन रखा था कि उन्होंने कर्पूरी डिवीजन से अपनी हाईस्कूल परीक्षा पास की थी। कर्पूरी डिविजन का अर्थ है 'पास विदाउट इंग्लिश'। मेरे राज्य बिहार में कर्पूरी डिवीजन से हाईस्कूल पास करने की व्यवस्था उस समय के मुख्यमंत्री भारत रत्न स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर जी ने चलाया था। शायद इसीलिए उसका नामकरण कर्पूरी डिवीजन ही प्रचलित हो चला था जिसमें छात्र-छात्रा को अंग्रेजी की परीक्षा देनी आवश्यक नहीं होती थी। ऐसे लोगों की अंक तालिका पर 'पास विदाउट इंग्लिश' लिखा होता, हां, जिन्हें देने की इच्छा होती वे अंग्रेजी भी पढ़ते और हाईस्कूल पास करते। मेरे गांव के अधिकांश शिक्षक कर्पूरी डिवीजन वाले होने के कारण अंग्रेजी के ज्ञान में अल्पज्ञानी थे इसलिए हम अंग्रेजी मीडियम के बच्चों को उनके साथ वार्तालाप करने में बड़ा आनंद आता।
आप सोच रहे होंगे कि मैं आज 2024 में अपने पुराने दिनों की चर्चा क्यों कर रहा हूं, शायद इसलिए मैं उन दिनों के नॉस्टैल्जिया में जी रहा, पर ऐसी बात बिल्कुल नहीं है। नई शिक्षा नीति 2020 के लागू होने के बाद बहुत सारी चीजें बदल गई, नए पाठ्यक्रम आ गए, ऑनलाइन एजुकेशन आ गया, छात्र-छात्राओं को स्वतंत्रता भी मिल गई कि वह जब चाहे तब महाविद्यालय छोड़कर चले जाएं और जब चाहे तब आ जाएं। यह बहुत बड़ा परिवर्तन है, आप भी मेरी तरह यही सोचते होंगे, पर कम से कम मेरे गृह राज्य में अंक तालिका पर सच तो लिखा गया यह छात्र 'पास विदाउट इंग्लिश' है। अगर सच लिखा गया है तो कोई दिक्कत नहीं, क्योंकि अंग्रेजी तो वैसे भी एक भाषा है जो भारत में बहुत आवश्यक नहीं है, पर क्या इसी तर्ज पर 'पास विदाउट टीचर' की भी कल्पना की जा सकती है?
जब आप नई शिक्षा नीति के पाठ्यक्रमों पर गौर करते हैं और विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालयों में शिक्षकों की उपलब्धता एवं नियुक्ति पर गौर करते हैं तो आपको लगता है कि हमें एक नया डिवीजन भी बनाने की जरूरत है जैसे 'पास विदाउट टीचर', या आप चाहें तो इसे एक पौराणिक नाम दे दें जैसे कि 'एकलव्य डिवीजन' क्योंकि महान एकलव्य ने भी तो बिना शिक्षक के ही सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। पर यहां एक समस्या है मित्रों, एकलव्य तो वास्तव में ज्ञानी बन गए थे पर आज के छात्र-छात्राएं विदाउट टीचर कितने ज्ञानी बन पाएंगे इस पर मुझे संदेह है इसलिए इसे 'एकलव्य डिवीजन' कहना उपयुक्त नहीं होगा। अतः उनके लिए 'पास विदाउट टीचर' सबसे ठीक नाम है। सरकार आजकल डिजिटल डिजिटल कर रही है, यह एक अच्छी पहल है पर उसमें शिक्षक भी तो होने चाहिए। पाठ्यक्रम तो बहुत से चला चला दिए गए पर शिक्षकों का कहीं पर भी कोई इंतजाम नहीं। कुछ दिनों में सरकार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के द्वारा शिक्षण कार्य कराने लगे तो मुझे कोई अचंभा नहीं होगा। पूर्व में तो विश्वविद्यालय महाविद्यालय से पूछा करते थे कि आपके यहां कौन कौन से शिक्षक उपलब्ध हैं? अगर हैं तो इस बात का सबूत दें और इसलिए बाद में मान्यता देते वक्त शिक्षकों के साथ वीडियोग्राफी भी होने लगी थी पर अब इस डिजिटल युग में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं, छात्र पढ़ भी रहे हैं, दना दन नंबर भी आ रहा है, पास भी हो रहे हैं पर शिक्षक कहीं नहीं, आप चाहें तो पास की किसी संस्था में खुद तस्दीक कर लें। विश्वगुरु बनते बनते शिक्षकों का ही शिक्षण कार्य से लोप हो जाना एक विडंबना नहीं तो और क्या है?
क्या संस्थाओं के पास इतनी हिम्मत है कि वह अंकतालिका पर जो सत्य है उसे अंकित कर दे? मैं तो यह समझता हूं कि स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर ने बहुत ही अच्छा कार्य किया था इसलिए उनकी प्रशंसा होनी चाहिए। वर्तमान सरकार को उनसे सीख कर अपने अंतर्मन में झांकना चाहिए कि जब शिक्षक ही नहीं है तो पाठ्यक्रम कैसे चल रहे हैं? आप समझ ही गए होंगे
अगर छात्र-छात्राएं पास विदाउट टीचर होंगे तो उनका अधिगम किस तरह का होगा? विदाउट टीचर पास छात्र-छात्राओं के पास क्या कोई ज्ञान होगा क्योंकि उनकी मुलाकात तो शिक्षक से हुई ही नहीं? अगर इंटरनेट से प्राप्त किए गए ज्ञान से कोई परीक्षा पास भी कर लेता है तो क्या हम उसे पूर्ण रूप से शिक्षित कह पाएंगे, इस बात पर मुझे संदेह है। पर पद्मश्री कंगना राणावत जी ज्ञानी अवश्य बन गई हैं क्योंकि वह भारत की आजादी का वर्ष 2014 में बता रही हैं और उन्हें टिकट भी मिल गया है। उनके अनुसार भारत के पहले प्रधानमंत्री नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे। थोड़ी देर को तो मैं भी सोच में पड़ गया था कि मैं कहीं गलत तो नहीं? मैं उन्हें साष्टांग प्रणाम करता हूं क्योंकि उन्होंने हम सभी को महान एकलव्य की तरह लगभग निरुत्तर कर दिया है, कुछ अलग अर्थों में, पर निरुत्तर तो हम हैं ही, इसमें कोई संदेह नहीं है।
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