पतहर

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सावधानी ही विकल्प है : डॉ कुलदीपक शुक्ल

विचार/ कोरोनावायरस/ विश्वविद्यालय प्रोफेसर/अपील
(डॉ कुलदीपक शुक्ल)
कोरोना जैसी महामारी से जूझते समाज की सुखद कामना करते हुए हम अपील करते हैं कि जो सावधानियां अपेक्षित हैं। उनका ईमानदारी के साथ पालन किया जाय। इन सावधानियों से मात्र आज ही नहीं अपितु  हजारों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने वैज्ञानिकों ने सचेत किया था। जिनमें से कुछ उपदेश समाज के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं जो कालजयी हैं, सार्वजनीन है, और हम  उनको भूल गये हैं।  आचार्य मनु मनुस्मृति 4/ 178 में कहते हैं-
येनास्य पितरो याता येन याता पितामहा:।
येनयायात्सतां मार्गं तेन गच्छनरिष्यति।।

 अर्थात व्यक्ति को उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जिस पर सज्जनों के पितामह और पिता चलते आए हैं, ऐसा करने से उसकी कोई हानि नहीं होगी। आचार्य वचन स्पष्ट करता है कि परिवर्तन और प्रगतिशीलता तो प्रकृति का नियम है। परिवर्तन का भय निरर्थक है क्योंकि हमारे धर्म शास्त्र ने नवीन परंपराओं तथा श्रेष्ठजनों के आदेशों को जो समयानुसार समाजहित एवं नवीन व्यवस्थाओं के अनुकूल परिवर्तित होते रहे हैं को सदैव मान्यता दी है। जैसा कि आज इस महामारी से बचने के लिए बार बार हाथ धोने की व स्वच्छता रखने की बात कही जा रही है यही बात आचार्य मनु कितने समय पूर्व मनुस्मृति 4/144 में कहते हैं कि बिना कारण अपनी इंद्रियों (मुख, नाक, आंख) आदि का स्पर्श नहीं करना चाहिए- “अनातुर: स्वानिखानि न स्पृशेदनिमित्तत:।“ सुश्रुतसंहिता चिकित्सा 24/94 में मुख को बिना ढके उबासी, खांसी, छींक, डकार इत्यादि न लेने का आदेश प्राप्त होता है- “ना संवृतमुख: सदसि जृम्भोद्गार कासश्वासशवथूनुत्सृजेत्।“ 
  बाहर कहीं से घर आने हाथ- पैर धोने की हमारी चिर परंपरा है। पद्मपुराण स्वर्ग खंड 52/10 में इसका आदेश भी प्राप्त होता है-
“अकृत्वा पादयो: शौचं मार्गतो न शुचिर्भवेत्।"
 सृष्टि के आरंभ से ही हम लोग समझते हैं कि हमारे देश में वर्ष भर ऋतुपरिवर्तन के साथ-साथ रहन-सहन, आहार-विहार, तथा आचार-विचार का परिवर्तन देखने को प्राप्त होता है। जैसे नवरात्रि व्रत वर्ष में दो बार प्रचलित है, कुछ लोग वर्ष में 4 बार भी करते हैं मात्र इन वासंती नवरात्रि को देखें तो 8 या 9 दिन प्रत्येक भारतीय की शुचिता(शारीरिक व मानसिक) अलग दिखाई देती है। आहार- विहार परिवर्तित हो जाता है। जो उस समय पर होने वाले संक्रमण से बचने की क्षमता प्रदान करता है। जैसे कि कोरोना के बचाव में कहा जा रहा है कि अपने आसपास नमी न आने दें उसी को हमारे गोभिल सूत्र व महाभारत में बहुत पहले लिख दिया गया की गीले वस्त्र कभी नहीं पहनने चाहिए- न आर्द्रं परिदधीति। गो0 सू03/5/25।
 “न चैव आर्द्राणि वासांसि नित्यं सेवेत मानव:” महाभारत अनुशासन पर्व 104/32। महाभारत में ही दूसरों के वस्त्र न पहनने के लिए भी आदेश है महाभारत अनुशासन पर्व 104/86 में “तथा न अन्यधृत (वस्त्रं) धार्यम्”।  
अनेक संक्रमणों से बचाव हेतु पद्मपुराण के सृष्टि खंड 51/86 में कहा गया है कि दूसरों के स्नान के वस्त्र तौलिया इत्यादि प्रयोग में नहीं लेना चाहिए-“ न धारयेत परस्यैवं स्नानवस्त्रं कदाचन्”। विष्णु स्मृति22 में उल्टी, छींक आने पर श्मशान से आने पर या क्षौरकर्म करने के बाद स्नान करने का विधान है- 
चिताधूम सेवने सर्वे वर्णा: स्नानं आचरेयु:।
वमने श्मश्रुकर्मणि कृते च।।“ 
 वहीं 64 वें अध्याय में पहने हुए वस्त्र को पुनः धुलकर पहनने के लिए भी आदेश है- “न अप्रक्षालितं पूर्वधृतं वसनं विभृयात्।“ धर्मसिंधु पूर्व आह्निक3 पर लिखा है कि समस्त खाद्य पदार्थ चम्मच से ही परोसने चाहिए हाथ से नहीं-“ लेह्य पेयं च विविधं हस्तदत्तं न भक्षयेत।”
 सुश्रुतसहिता चिकित्सा 24/98 तथा पद्म पुराण सृष्टि खंड 51/88 में प्राप्त होता है कि हाथ पैर और मुख प्रक्षालन कर ही भोजन करना चाहिए- “हस्तपादे मुखे चैव पञ्चार्द्रो भोजनं चरेत” वाधूल स्मृति में आचार करने के लिए भीति प्रदर्शन भी दृष्टिगोचर होत है- “स्नानाचारविहीनस्यसर्वा:स्यु:निष्फला: क्रिया:।“  अर्थात स्नान और शुद्धता के बिना सभी कार्य निष्फल हो जाते हैं। अन्य स्थानों पर भी बाहर से घर आने पर वस्त्र बदलने, स्नान के बाद भीगे वस्त्रों से शरीर को न पोछने, अंजली से जल न पीने, दांतो से बाल, नाखून न काटने या न चबाने के लिए  भी उपदेश प्राप्त होता है। इसी प्रकार के अनेकानेक अनुदेशों - उपदेशों का भंडार है हमारा भारतीय वाड्.मय। इसका अध्ययन करने का प्रत्येक भारतीय अधिकारी है। जैसा कि सभी के विदेशों से आवागमन पर रोक लगा दी गई है क्योंकि विषाणु विदेश ही आया है।
 हमारे शास्त्रों में प्रत्येक समुद्र लंघन के बाद पवित्र होने के लिए विधान बताया गया है अर्थात जब भी आप किसे दूसरे देश से वापस आए तो आप शास्त्रीय शुद्धता का आचरण करें। जो आज प्रासंगिक है। तथा जो सभी को अपने घर में रहने के लिए lock down किया गया है उसका उपदेश अथर्ववेद 6/88/3 में प्राप्त होता है- “सर्वादिश: संमनस: सध्रीची।“ अर्थात मात्र भारतवासी ही नहीं अपितु ऐसी परिस्थिति में सभी दिशावासी (विश्वजन) समान बुद्धि, समान मन और समान विचार वाले हो और वह चिंतन विचार क्या हो इसका भी उपदेश प्राप्त होता है सर्व प्राचीन वेद ऋग्वेद 6/75/14 में – “पुमान पुमांसं परिपातु विश्वत:।“ मनुष्य मनुष्य की सभी प्रकार से रक्षा करें जो कि आज हमारे देश -प्रदेश की सरकारें, वैज्ञानिक, चिकित्सक सभी  कह रहे हैं कि एक दूसरे के प्राणों की, स्वास्थ्य की चिंता करें, घर में रहे, कम से कम बाहर निकले, स्वच्छता का पालन करें, पतंजलि के योग का प्रयोग करें आदि आदि।जो हमारे भाई-बहन ऐसी आपातकालीन स्थिति में बेघर है उनको प्रत्येक तरीके से दान देने की  हमारी सुदीर्घ परंपरा है जिसको बताने की आवश्यकता हम यहां नहीं समझते। व्यास स्मृति में तो यहां तक कहा गया है कि अपने एक निवाले में से आधा निवाला जरूरतमंद को देने के लिए प्रतिक्षण तैयार रहना  चाहिए। समस्त भारतीयों जो हमारी परंपरा को हमारी संस्कृति की विशेषताओं को हमारे आचरण एवं व्यवहारों को भूल चुके हैं, और आज पुनः अपने को भारतीय होने पर गर्व का अनुभव कर रहे हैं उनसे मेरा निवेदन है कि एक बार समय और प्रकृति हमें पुन: अपनी संस्कृति से जुड़ने का, समझने का तथा जानने का संकेत कर रही है। अत: जो आज आवश्यक नियम हैं उनका पालन करें, अपनी शाष्त्रीय परंपरा के उपदेशों का अमल करें और भविष्य को सुरक्षित करें। स्वयं बचे, देश को बचाएं।
(डॉक्टर कुलदीपक शुक्ला संस्कृत विभाग गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर में उपाचार्य हैं)
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