हिन्दी कवि धूमिल की जयंती
चंद्रेश्वर-
09 नवंबर 1936 को ज़िला बनारस के गाँव खेवली में पैदा हुए धूमिल हिन्दी में साठोत्तरी पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि हैं | वे आज अगर हमारे बीच जीवित होते तो बयासी की उम्र के होते | वे मात्र कोई 38 साल की अल्पायु में ही सन् 1975 की 10 फरवरी को लखनऊ में ब्रेन ट्यूमर के चलते असमय ही चल बसे | धूमिल ने अपने समय की कविता के मुहावरे को बदलने का काम किया था | उनकी कविता में सपाटबयानी का शिल्प उनकी अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी की नयी कविता में प्रतीकों और बिम्बों की जटिलता, दुरूहता एवं कृत्रिमता के विरूद्ध प्रतिक्रिया में सहज -स्वाभाविक तरीके से सामने आया था | उनकी कविता में समय के तीख़े स्वर को भारतीय स्तर पर सुना और जाना गया | उनकी कविताएँ जनतंत्र के ढोंग और छद्म को सामने लाती हैं | वे विषमता और अमानवीयता के ख़िलाफ सच्ची आवाज़ की तरह हैं | आज जबकि अपने समय की सच्चाइयों को लेकर कई कवि अपनी नकली और कृत्रिम कविताओं की मार्केटिंग में दिन-रात मुब्तिला हैं, धूमिल की कविताओं की याद आना स्वाभाविक है | धूमिल की कविताएँ लोक से गहरे जुड़ी हैं | उनकी कविताओं में भाषा और उसके तल्ख़ तेवर में एक तरह का पूरबिया देशज ठाट देखा जा सकता है | धूमिल की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे अक्सर महसूस होता है कि उनमें एक अभावग्रस्त किसान के संघर्षशील बेटे की बौखलाहट दिखती है | वे पूरी तरह से एक गँवई और क़स्बाई संवेदना के कवि हैं | जीवन और कविता में साथ -साथ प्रतिरोध की ज़मीन पर कैसे टिके रहा जा सकता है, इसमें धूमिल अब भी हमें राह दिखाते हैं | वे हमें चेतस और विवेकवान बनाते हैं | उनकी कविताएँ सड़क पर खड़े,गुस्से में अदहन की तरह खौलते आम आदमी की आवाज़ को संसद तक पहुँचाने का काम करती हैं | अपने प्रिय कवि का सादर स्मरण कर रहा हूँ, एक ऐसे समय में जब असहमतियों को दुश्मनियों में बदल दिया जा रहा है ; हर तरफ़ एक सच्ची , न्यायप्रिय और नैतिक आवाज़ का गला दबाया जा रहा है |उनकी एक कविता अकाल दर्शन ...
(लेखक एमएलके पीजी कॉलेज बलरामपुर में हिंदी के प्राध्यापक है)
चंद्रेश्वर-
09 नवंबर 1936 को ज़िला बनारस के गाँव खेवली में पैदा हुए धूमिल हिन्दी में साठोत्तरी पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि हैं | वे आज अगर हमारे बीच जीवित होते तो बयासी की उम्र के होते | वे मात्र कोई 38 साल की अल्पायु में ही सन् 1975 की 10 फरवरी को लखनऊ में ब्रेन ट्यूमर के चलते असमय ही चल बसे | धूमिल ने अपने समय की कविता के मुहावरे को बदलने का काम किया था | उनकी कविता में सपाटबयानी का शिल्प उनकी अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी की नयी कविता में प्रतीकों और बिम्बों की जटिलता, दुरूहता एवं कृत्रिमता के विरूद्ध प्रतिक्रिया में सहज -स्वाभाविक तरीके से सामने आया था | उनकी कविता में समय के तीख़े स्वर को भारतीय स्तर पर सुना और जाना गया | उनकी कविताएँ जनतंत्र के ढोंग और छद्म को सामने लाती हैं | वे विषमता और अमानवीयता के ख़िलाफ सच्ची आवाज़ की तरह हैं | आज जबकि अपने समय की सच्चाइयों को लेकर कई कवि अपनी नकली और कृत्रिम कविताओं की मार्केटिंग में दिन-रात मुब्तिला हैं, धूमिल की कविताओं की याद आना स्वाभाविक है | धूमिल की कविताएँ लोक से गहरे जुड़ी हैं | उनकी कविताओं में भाषा और उसके तल्ख़ तेवर में एक तरह का पूरबिया देशज ठाट देखा जा सकता है | धूमिल की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे अक्सर महसूस होता है कि उनमें एक अभावग्रस्त किसान के संघर्षशील बेटे की बौखलाहट दिखती है | वे पूरी तरह से एक गँवई और क़स्बाई संवेदना के कवि हैं | जीवन और कविता में साथ -साथ प्रतिरोध की ज़मीन पर कैसे टिके रहा जा सकता है, इसमें धूमिल अब भी हमें राह दिखाते हैं | वे हमें चेतस और विवेकवान बनाते हैं | उनकी कविताएँ सड़क पर खड़े,गुस्से में अदहन की तरह खौलते आम आदमी की आवाज़ को संसद तक पहुँचाने का काम करती हैं | अपने प्रिय कवि का सादर स्मरण कर रहा हूँ, एक ऐसे समय में जब असहमतियों को दुश्मनियों में बदल दिया जा रहा है ; हर तरफ़ एक सच्ची , न्यायप्रिय और नैतिक आवाज़ का गला दबाया जा रहा है |उनकी एक कविता अकाल दर्शन ...
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?
उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।
लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
'जनता के हित में' स्थानांतरित
हो गया।
मैंने खुद को समझाया – यार!
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।
और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'
बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।
मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
कभी 'गाय' से
कभी 'हाथ' से
'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ –
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।
ले चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है :
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :
कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति –
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के –
हाथों की जूजी है।
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?
उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।
लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
'जनता के हित में' स्थानांतरित
हो गया।
मैंने खुद को समझाया – यार!
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।
और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'
बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।
मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
कभी 'गाय' से
कभी 'हाथ' से
'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ –
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।
ले चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है :
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :
कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति –
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के –
हाथों की जूजी है।
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