पतहर

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संतोष चौबे की कहानियों में सामाजिक सरोकार

डॉ.संदीप कुमार सिंह


संतोष चौबे हिंदी के उन विरले कथाकारों में है जो साहित्य और विज्ञान में समान रूप से हस्तक्षेप करते हैं । जन विज्ञान और साक्षरता आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी के उपरांत कथाक्षेत्र में भी सक्रिय हैं यह साहित्य के पाठकों के लिए सुखद है । उनके तीन कथा-संग्रह हल्के रंग की कमीज, रेस्त्रां में दोपहर तथा प्रतिनिधि कहानियां इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं । आकर्षक और प्रभावशाली शैली में वे आस-पास के जनजीवन का वास्तविक और मुकम्मल चित्र खींचते हैं । भारतीय संदर्भ में आधुनिकता के संचरण की प्रक्रिया को संतोष अपनी कहानियों में बहुत सलीके से रखते हैं जिससे जन-मानस का समूचा परिदृश्य उभर कर सामने आ जाता है । वाग्विदग्धता और कहन का अनोखा अंदाज संतोष की कहानियों की मुख्य विशेषता है । जीवन के अर्थाभाव, शिक्षित बेरोजगारी, अकाल,सूखा, बाढ़,नवीन ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी की त्रासद से त्रासद स्थितियाँ,परिवर्तित ग्रामीण परिवेश,पारिवारिक सामाजिक संबंधों की मृदुता पर पड़ता अनैतिक दबाव,मूल्यों में आए परिवर्तन और उनके टूटने से उपजा क्षोभ आदि स्थितियों से संतोष चौबे की कहानियां रूबरू कराती हैं । आज पश्चिम की सभ्यता से प्रभावित जनमानस भारतीयता को पिछड़ेपन की निशानी समझता है जो सर्वथा अनुचित है । हिंदी कहानियों में भी वही पश्चिम से आयातित अवधारणाओं -
ऊब,उकताहट, संत्रास, भय, विद्रूपता, असमर्थताबोध,विसंगति बोध, अकेलेपन आदि को प्रश्रय मिला जिससे कथा का पाठक भारतीयता से कुछ अंश तक कट गया लेकिन संतोष ने अपनी कहानियों में इन अवधारणाओं को भारतीय संदर्भ देकर जीवन को देखा,परखा और समझा तथा पूरी प्रामाणिकता और निष्ठा के साथ प्रस्तुत भी किया । आज ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी,आर्थिक और औद्योगिक उन्नति के बावजूद समाज की धार्मिक भावनाएं एवं पुरातन विश्वास तथा मूल्य चिपके हुए हैं । इन्हीं तमाम परिस्थितियों से संतोष मुठभेड़ करते हुए उनका प्रतिरोध करते हैं जिसका माध्यम केवल और केवल उनकी साहित्य सेवा और कथा लेखन ही है ।  प्रसिद्ध आलोचक डॉ. धनञ्जय वर्मा अपनी पुस्तक 'आलोचना के सीमांत' में लिखते हैं -"साहित्यकार के प्रतिरोध का माध्यम ज़ाहिर है साहित्य ही हो सकता है । वह मनुष्य के पक्ष में उस सबके ख़िलाफ़ है जो मनुष्य के ख़िलाफ़ है इसलिए साहित्य में मानवीय सम्बन्धों और मानवीय मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा से ही वह भूमंडलीकरण के ख़तरों से संवेदनात्मक और वैचारिक धरातल पर न केवल अपना प्रतिवाद दर्ज कर सकता है वरन एक बेहतर मानव और समाज की प्रतिष्ठा में अपना योगदान कर सकता है । (पृष्ठ-130)

संतोष अपनी कहानियों में रूढ़ और प्राचीन मान्यताओं को बड़े सलीके से भारतीयता का जामा पहनाकर पाठकों को हृदयंगम करा देते हैं । उनकी कहानियां सीधी,सपाट,सरल और बातचीत करती हुई सी लगती हैं लेकिन वे अंत में धीरे से चोट करके व्यक्ति मन पर अपना असर दिखा देती हैं । नशाखोरी और अनैतिक आदतों से आज के युवाओं में मूल्य गिरते जा रहे हैं । मां-बाप,भाई-बहन, चाचा-भतीजे आदि के संबंध जैसे बोझ के समान ढोए जा रहे हैं । इन आत्मीय संबंधों के बीच भी दरारें पड़ती दिखाई दे रही हैं ।युवा भटकाव में हैं उनकी नैतिक शक्ति क्षीण होती जा रही है । पश्चिम की चकाचौंध और यांत्रिकता के मोह में पड़कर वे सही गलत का आकलन नहीं कर पा रहे हैं । पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अवदान को यहां नकारा नहीं जा रहा है बल्कि इस बात पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है कि हमें उन मूल्यों को अपने भारतीय परिवेश में किस तरह परिवर्तित करके अपनाया जाए ? हमें जीवन के महत्व,मनुष्यता से प्रेम और नवीन जीवन मूल्यों की स्थापना पर जोर देना चाहिए । आर्थिक संतुलन किसी भी समाज और सभ्यता का मुख्य घटक होता है । यदि हम आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं तो ज्ञान-विज्ञान का व्यापक प्रचार-प्रसार कर सकेंगे जिससे समाज मजबूत होगा और जितना आर्थिक उदारीकरण होगा उतना ही व्यक्ति,समाज और राष्ट्र मजबूत होगा । डॉ. रमेश कुंतल मेघ आधुनिकता को अर्थव्यवस्था और सीधे-सीधे अर्थ से जुड़ा हुआ देखते हैं । वे अपनी पुस्तक "आधुनिकता बोध और आधुनिकीकरण" में लिखते हैं "सामान्यत: आधुनिकीकरण आर्थिक क्रांति से जुड़ता है जिस मात्रा में तथा जिस गति और कोटि वाला आधुनिकीकरण होगा उसी अनुपात में आधुनिकता का भी अन्वयन होता है ।"(पृष्ठ-311) इस तरह अर्थ संपन्नता किसी भी समाज के लिए सुखकर है ।

"सिगरेट" कहानी में एक वास्तविक घटना को कथा का आधार बनाया गया है जिसमें कुछ युवा सिगरेट पीते हुए बस में यात्रा करते हैं और उनकी दबंगई से कोई भी व्यक्ति उनकी हरकतों के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाता क्योंकि उन लड़कों का सरदार पंचू जाना माना गुंडा और बदमाश था और जिससे भिड़ने का मतलब था स्वयं के हाथ पैर को तुड़वाना । कथा लेखक (जो स्वयं एक पात्र है) उनसे तंग आ गया था उसी के शब्दों में - "मुझे लगा मैं लगभग पूरी तरह जली सिगरेट की तरह हो गया हूँ जिसे फिर जलाना संभव नहीं होगा ।"  बस में स्थिति बदतर होती जा रही थी लड़के कथानायक की सीट के पास आ गए थे, लड़की को लगभग धकेलते हुए अपने साथ लेकर । वे हँस रहे थे,धक्के लगा रहे थे और भौंडे फ़िकरे कस रहे थे । इस तरह की घटनाएं आए दिन समाज में घटती रहती हैं और हम सब ऐसी स्थितियों से लगातार दो चार  होते रहते हैं ।शासन-प्रशासन द्वारा इस तरह की अराजकता पर लगाम लगाने की कवायदें लगातार जारी रहती हैं लेकिन इसके बावजूद भी इस तरह की घटनाओं पर पूरी तरह अंकुश नहीं लग पाता । यदि हम इस तरह की घटनाओं की तह में जाएं तो एक बात स्पष्ट दिखाई पड़ती है वह है आधुनिक परिवेश में युवाओं में नैतिकता का ह्रास । यदि व्यक्ति के अंदर स्वयं की नैतिकता होगी तो वह इस तरह के कृत्यों से परहेज करेगा । कुल मिलाकर आज आवश्यकता इस बात की है कि हम स्वयं नैतिक बने,अपने बच्चों को नैतिकवान बनाएं तथा समाज में अधिक से अधिक जन जागरूकता फैलाएं । केवल पुलिस-प्रशासन का भय दिखाकर ही  ऐसी घटनाओं को रोकना कठिन है ।

समाज के विभिन्न क्षेत्रों में जो परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है संतोष चौबे अपनी कहानियों में उनका वर्णन बहुत ही सूक्ष्म ढंग से करते हैं । संतोष की कहानियां मनुष्य की जिंदगी की संपूर्ण विसंगतियों,भावनाओं एवं विवशताओं को इस तरह से पाठकों की रूचि का हिस्सा बना देते हैं कि पाठक संपूर्ण वृत्तांत को आसानी से समझ जाता है । दार्शनिकता का पुट भी संतोष की  कहानियों में कहीं-कहीं दिखाई पड़ता है । "खिड़की" कहानी का यह अंश  बानगी के तौर पर देख सकते हैं - "सत्य कोई एक नहीं होता उसके कई पक्ष होते हैं, जीवन का अंतिम सत्य भले ही मृत्यु हो पर वह एकमात्र सत्य नहीं है । यह भी सत्य है कि मां अपने बच्चे को प्यार के साथ बड़ा करती है और उन्हें फलते-फूलते देखना चाहती है,लोग कष्ट में एक-दूसरे की सहायता करते हैं और एक दूसरे को जीवित देखना चाहते हैं । लोग जीना चाहते हैं कि साहित्य,संगीत,ज्ञान-विज्ञान की दुनिया को देख सकें,उनका आनंद उठा सकें,उसकी बढ़ोतरी के लिए कुछ कर सकें और इस करने से सुख हासिल करें । सत्य यह भी है कि लोग कोढियों की सेवा करने में अपना जीवन होम देते हैं,देश के सम्मान की खातिर लड़ जाते हैं, प्यार की पवित्र भावना पर जीवन न्यौछावर कर देते हैं,असल में वे सब जो जी रहे हैं,जीना ही चाहते हैं,एक शक्ति है - उसे जीवनी-शक्ति की ताकत देती है । जब सत्य के इतने पक्ष हैं दुनिया में तो फिर अंतिम सत्य की ही चिंता क्यों ?"

 वहीं "बच्चे" कहानी एक पिता के भावुक मन को लेकर लिखा गया आख्यान है जो बुलबुल के इर्द-गिर्द घूमता है । बच्चे की मासूमियत, चतुराई,रचनात्मकता, भोलेपन और सरलता पर मुग्ध पिता उपाध्याय जी सभी के प्रति सद्भाव रखते हैं और सभी बच्चों को दुलार करते हैं वे कहते हैं - "देखो बेटा शैतानी मत करो, सब लोग आपस में मिलजुलकर खेलो । एक दूसरे को मारना गिराना अच्छी बात नहीं है, जाओ अब खेलो । अपने पुत्र बुलबुल को उपाध्याय जी किसी से कम नहीं देखना चाहते । पुत्र की स्वस्ति कामना के लिए उनका मन असीम करुणा और प्यार से भर जाता है । वर्तमान जीवन की विसंगति और आपाधापी भरे माहौल में इस तरह की संवेदना को प्रस्तुत करना संतोष की अपनी मौलिक विशेषता है । पारंपरिक सम्बन्धों को बहुत सहजता से इस कहानी में प्रस्तुत किया गया है । कहना न होगा कि  एक पिता का पुत्र के प्रति प्रेम और समर्पण की यह कहानी एक सार्थक और महत्वपूर्ण बयान है ।

"मुहूर्त" कहानी द्वारा नवीन ज्ञान विज्ञान और टेक्नोलॉजी से लैस एशियन इलेक्ट्रिक कंपनी के वरिष्ठ प्रबंधक विश्वनाथन के माध्यम से अंधविश्वास को उजागर करने का प्रयास किया गया है । रडार बनाने वाली इस फैक्ट्री को विज्ञान और तकनीकी के माध्यम से नियंत्रित न करने की बजाए मुहूर्त से नियंत्रित करना हास्यास्पद लगता है । विश्वनाथन के व्यवहार से कंपनी के अन्य कर्मचारी, इंजीनियर असहज महसूस करते हैं । मित्रा कहता है - "क्या बकवास है यार ? हम दुनिया की सबसे आधुनिक तकनीक पर आधारित रडार बना रहे हैं और तकनीकी गलती ढूंढने के बजाय मुहूर्त की तलाश कर रहे हैं ।" इस तरह संतोष समय के साथ व्यक्ति में बदलाव के वाहक हैं और विश्वनाथन की अपरिपक्वता को उजागर करते हुए इस बात को रेखांकित करते हैं कि ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में भावुकता का स्थान नहीं है बल्कि सही और तार्किक समझ द्वारा ही अपने लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है ।

वहीं "एक विचित्र प्रेमकथा" एक मनोवैज्ञानिक कहानी के रूप में पाठकों के सामने आती है ।कहानी के पात्र सुधीर और मधुकर के माध्यम से संतोष चौबे ने मानवीय मनोभावों को सहज रूप में चित्रित किया है । आद्योपांत कहानी में असफल प्रेम के भाव स्तरों की अनेक परतों को खोला गया है । शारीरिक भूख की तृप्ति में बाधक संपूर्ण घटकों के प्रति व्यापक आक्रोश का स्वर  मधुकर के चरित्र में देखा जा सकता है । यह कहानी मनोवैज्ञानिक यथार्थ की सहज अभिव्यक्ति करती है । संतोष इस कहानी में मानवीय चरित्र में व्याप्त तमाम विरुपताओं से सुधीर और मधुकर के आपसी वार्तालाप द्वारा पाठकों के समक्ष लाते हैं जो अनुभूति की गहराई और जीवन की वास्तविकताओं का प्रतिनिधित्व करती है, जो ओढ़ी हुई या आयातित ना होकर उनकी रचनात्मकता को भी धार देती हैं । मधुकर का यह कहना कि - " सुधीर यू टेल मी,मेरी क्या गलती थी ? मैंने उसे प्यार किया, घुमाया-फिराया, उपहार दिए फिर भी उसने मुझे पसंद क्यों नहीं किया ?" वर्तमान समय में बड़े प्रश्न खड़ा करता है । मनुष्य की यही पशुवृत्ति धीरे-धीरे सहज मानवीय संबंधों को अपनी गिरफ्त में लेती जा रही है । इस तरह यह कहानी  व्यक्ति की एकांतिक जीवन की मार्मिकता को बड़ी सहजता से प्रस्तुत करती है ।

"रेस्त्रां में दोपहर" मानव मन के विश्लेषण को लेकर लिखा गया एक जरूरी बयान है । सुकांत एक विश्लेषक है । वह व्यकि के हाथ,कान,नाक,आँख आदि को देखकर उसके व्यक्तित्व का विश्लेषण करता है । सुकांत स्पष्ट वक्ता और साहसी युवक  है । वह  बँधे-बँधाए घिसे-पिटे आलोचकों को आड़े हाथों लेता है । एक दिन शहर की साहित्यिक गोष्ठी में जहां लोग छायावादी मुहावरों का प्रयोग करते हुए कविता पर और आंचलिकता की पिटी-पिटाई बहस के बहाने कहानी पर बात कर रहे थे,सुकांत बरस पड़ा । उसने वैश्विक चेतना और उत्तर आधुनिक हथियारों के माध्यम से विश्लेषण पर जोर दिया,उसने विधाओं की अंतरक्रिया पर बल दिया । उसने विज्ञान और तकनीक का साहित्य पर पड़ने वाले प्रभाव का जिक्र भी किया और इस तरह उसने श्रोताओं को हतप्रभ कर दिया । धीरे-धीरे गले  की गहराई से निकले उसके शब्दों में बार-बार देरिदा,इगलटन,फूको और रेमंड विलियम्स जैसे लेखकों का नाम आया जिससे शहर के कवि,कथाकार परिचित नहीं थे और जिनकी स्थापनाओं की चमक ने उन्हें चकाचौंध कर दिया । इस तरह सुकांत अपनी स्पष्ट और धारदार तीखी प्रतिक्रिया के बल पर धूमकेतु की तरह छा गया । इस तरह यह कहानी साहित्य, आलोचना, उसके मानदंड और व्यापक समाज के परिप्रेक्ष्य को रेखांकित करती है । व्यक्ति आज की विसंगतियों और दबावों के बीच पिसता हुआ अपने अंदर ही चुकता जा रहा है लेकिन कथाकार संतोष अपनी सतत प्रयत्नशीलता की प्रक्रिया में अपने अंतस को अतिरिक्त चिंतनशीलता से ऊर्जस्वित करते हैं । कुल मिलाकर यह कहानी साहित्य, समाज,व्यक्ति और परिवेश का सहज अंकन  करती है ।

"रिदम" मांसल रोमांस की ईमानदार अभिव्यक्ति है जो चंद्रशेखर और अरुणा के अंतर्मंथन से आभासित होता है । मानव मन सहज ही प्रेम और रोमांस के प्रति आकर्षित हो जाता है लेकिन उसे संयोग और वियोग के असमंजस की स्थितियों के अतिरिक्त यथार्थ के ठोस बौद्धिक धरातल पर प्यार और भावुक स्वप्निल रोमांस के साथ घृणा की तीखी अभिव्यक्ति मिलती है ।नारी हमेशा प्रेम और रोमांस की अभिव्यक्ति में संकोच करती रही है । वह कभी मुखर नहीं हो पाई । वह सामाजिक परंपराओं और आदर्शों के दबाव में स्वयं को इस तृप्ति के लिए अकेला महसूस करती रही है लेकिन पुरुष तो चिरकाल से ही अपनी इस अभिव्यक्ति को मुखर होकर घोषित करता रहा है । चंद्रशेखर के मन की कुंठा,उसकी हताशा और उसका आत्मविश्वास जिस तरह उसकी पत्नी अरुणा लौटाती है वह पाठक के मन को सकारात्मकता की ओर प्रेरित करता है । यहां संतोष की अभिव्यक्ति एक कुशल मनोवैज्ञानिक सलाहकार की तरह है । अरुणा अपने पति की ओर देखकर उसे आश्वस्त करते हुए उसका हाथ अपने दिल पर रखकर कहती  है -  "बस कभी तुम मुझे अच्छे लगते हो,कभी नहीं और जब तुम मुझे अच्छे लगते हो तो सब ठीक होता है ।"

साहित्य,कला,संगीत,नाटक रंगमंच और उनसे जुड़ी कतिपय अवधारणाओं तथा विचारों को "मगर शेक्सपियर को याद रखना" नामक कहानी में देखा जा सकता है । इस कहानी का उद्देश्य एक प्रगतिशील नाट्य निर्देशक इरफ़ान अहमद साहब के बहाने कला और विशेषकर नाट्य मंडलियों और उनके प्रदर्शनों की बेहतरी और उसमें आए बदलाओं को दिखाने का है । कहानी के पात्रों के आपसी वार्तालाप और उनसे निकले निष्कर्ष आज के प्रगतिशील आंदोलन पर सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं । कहानी की एक पात्र अरुणा का यह तीखा कथन प्रगतिशीलता को रेखांकित करता है - " प्रगतिशीलता माई फुट ! पक्के अवसरवादी हैं, इमरजेंसी लगी तो इंदिरा गांधी के साथ हो लिए और पुरस्कार में राज्यसभा मेंबरी पा गए । फिर तमाम सरकारी समितियों में,देश-विदेश की यात्राओं में और अनुदान में अपना समय गुजारते रहे । उधर हिंदूवादी दल ने जीना मुश्किल किया तो हमारे शहर में आ गए । अब मजे में हैं । तमाम सरकारी समितियां उनके शो करवाती हैं,हम छोटे शहर के लोग उन्हें सिर आंखों पर बिठाए रखते हैं,तमाम पुरस्कार आदि उनके कदम चूम रहे हैं,और उन्हें क्या चाहिए ? यही उनका संघर्ष है । इस तरह प्रगतिशील आंदोलन,नाट्य प्रदर्शनों की दशा-दिशा,साहित्य के प्रतिमान,आलोचना और विभिन्न कलाओं पर मार्मिकता से इस कहानी में विचार हुआ है । सूचना तकनीकी  का बढ़ता दायरा, संसाधनों की पर्याप्त उपलब्धता आदि का वर्णन कहानी की रोचकता को बढ़ाता है । मानव मन की गहन,सूक्ष्म और यथार्थ अभिव्यक्ति को इस कहानी में महसूस किया जा सकता है ।


 कुल मिलाकर संतोष की कहानियाँ जन सरोकार के दायरे को व्यापक करती हैं । वे मनुष्य के जीवन को विवेक से दीप्त करते हैं । अंतर्वस्तु और भाषा दोनों स्तरों पर उनकी कहानियां मानवीय संबंधों की मिठास को नहीं छोड़ती हैं । उनका विचार वातायन सदैव खुला रहता है जिससे उनका संस्कार अतीतोन्मुखता और गतिहीनता से मुक्त रहता है । संतोष चौबे अपनी कहानियों के माध्यम से जीवन के बुनियादी ढाँचे पर  विशेष बल देते हैं । आत्मान्वेषण और संरचना के द्वारा वे भावों और विचारों को संस्कार देकर अधिक समर्थक, व्यापक और व्यंजक बना बनाकर प्रस्तुत करते हैं । संतोष का अनुभवी मन उन्हें पर्याप्त सम्पन्न और सर्जनात्मक बना देता है । वे भाषा को व्यापक संचार का सशक्त माध्यम मानते हैं इसलिए वे भाषा के सजग शिल्पी हैं । संतोष की कहानियों  को पढ़ते समय यह महसूस होता है कि ये सभी घटनाएं तो जैसे अपने आस-पास की ही हैं । जीवन पर्यवेक्षण के लिए जैसी उक्ति उनके यहां है अन्यों के यहां नहीं मिलती ।  हर कथाकार का अपना एक वैशिष्ट्य होता है । तकनीकी और जनसंचार के क्षेत्र से संबद्ध  होने के बावजूद भी संतोष चौबे की अपनी विशिष्टता है । कहन में सादगी कितनी व्यंजक हो सकती है यह संतोष चौबे की कहानियों में देखा जा सकता है और जो उनकी कहानियों की अपनी निजी और मौलिक पहचान भी है जिसे उन्होंने बड़ी साधना से अर्जित किया है । मानवीय संवेदनाओं को संतोष बहुत मजबूती से अपनी कहानियों में स्वर देते हैं । के. एम.मालती 'साठोत्तरी हिंदी काहानी' में मानवीय संवेदना की मुकम्मल परिभाषा देते हुए लिखती हैं -" मानवीय संवेदना जिसे साधारणीकृत अनुभव पा अनुभव से मानवीय अनुभूति तक लौटने की यात्रा कहा जा सकता है ।" (पृष्ठ-99) कुल मिलाकर इस तरह संतोष चौबे की कहानियां अपने अंदर व्यापक सामाजिक सरोकारों को समेटती हैं । 
संदर्भ सूची :-
1. संतोष चौबे - प्रतिनिधि कहानियां, आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल-सन-2019
2. धनंजय वर्मा - आलोचना के सीमांत,  साहित्य भंडार, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-2014
3.डॉ. रमेश कुंतल मेघ - आधुनिकताबोध और आधुनिकीकरण, अक्षर प्रकाशन,दिल्ली-1969
4. के.एम.मालती - साठोत्तरी हिंदी कहानी,लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण- 1991
संप्रति:
अध्यक्ष-हिंदी विभाग, राजकीय डिग्री महाविद्यालय,बगहा, बी.आर.अंबेदकर बिहार विश्वविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)


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