पतहर

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नये कवियों को श्रीकांत वर्मा की कविता से सीखने की जरूरत : प्रो.अरविन्द त्रिपाठी

*सत्ता पर कोई नाज नहीं कर सकता 

* कवि, रचनाकार, पत्रकार श्रीकांत वर्मा स्मरण कार्यक्रम

देवरिया। जो आत्म अभियोग मुक्तिबोध, निराला व अन्य कवियों में दिखलाई देती है वह श्रीकांत वर्मा में नहीं है। स्वयं को कटघरे में रखना उनकी कविता बताती है। श्रीकांत जी का मानना था कि सत्ता पर कोई नाज नहीं कर सकता है। सत्ता का बाहर सड़क पर विरोध करना तो आसान है, मगर सत्ता में रहकर टकराना आसान नहीं है।  
        दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के आचार्य प्रोफ़ेसर अरविंद त्रिपाठी ने उक्त बातें कही। प्रो त्रिपाठी सोमवार को पतहर पत्रिका द्वारा आयोजित 'श्रीकांत वर्मा स्मरण' कार्यक्रम में फेसबुक लाइव संबोधित कर रहे थे।
 उन्होंने कहा कि श्रीकांत वर्मा का व्यक्तित्व संघर्ष मय रहा है। वे उन कवियों में हैं जिनका कोई स्कूल नहीं था। जो मुझसे नहीं हो सका वह मेरा संसार नहीं, जैसे पंक्तियां लिखने वाले श्रीकांत वर्मा राजनीति से दूर नहीं रहे। सीधे-सीधे कांग्रेस के संपर्क में रहने के बावजूद भी असहमति के स्वर, उनके ऊपर समाजवाद का प्रभाव तथा लोहिया के विचारों का गहरा असर देखा जा सकता है। 
प्रो. त्रिपाठी ने उनकी मगध तथा कोसल में विचारों की कमी है, जैसे कविता के माध्यम से विभिन्न राज्य शासकों की व्याख्या की।
 प्रोफ़ेसर त्रिपाठी ने कहा कि नये कवियों को श्रीकांत वर्मा की कविता से सीखने की जरूरत है। एक ही भावभूमि पर कब तक लिखते रहोगे। अपने आप को बदलो। प्रोफ़ेसर त्रिपाठी ने कहा कि युवा कविता के मुखर स्वर के रूप में वे हमेशा याद किए जाते रहेंगे। समय, समाज, राजनीति व  व्यवस्था पर उनकी कविताएं सवाल खड़ा करती हैं। शायद इसीलिए श्रीकांत वर्मा नई कविता के पहले नराज कवि हैं।
 उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि मुक्तिबोध ने तो श्रीकांत को प्यार से बिलासपुर का लाडला कहा करते थे। प्रोफेसर त्रिपाठी ने काव्य की शक्ति शब्द को बताया और कहा कि श्रीकांत जी के यहां भरपूर शब्द भंडार है।
 संबोधन के दौरान सर्व श्री अष्टभुजा शुक्ला, प्रोफेसर अनिल राय, प्रोफेसर चितरंजन मिश्रा,  डॉ चतुरानन ओझा, डॉ उन्मेष सिन्हा, रवि त्रिपाठी, उषा पांडे, केशव शुक्ला, जीवन सिंह, प्रभाकर मिश्रा, त्रिपुरारी शर्मा आदि ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए टिप्पणियां की। कार्यक्रम का संयोजन व आभार पतहर पत्रिका के संपादक विभूति नारायण ओझा ने किया।