आलेख/ विचार
*डॉ मनीष पाण्डेय, असिस्टेंट प्रोफेसर*
अबकी आषाढ़ बीतने पर बरसा! बसंत की तरह अब आषाढ़ भी अनुभव करते ही बीत जाता है!ये बारिश की शुरुआत का महीना है, जो जेठ के तपिश को कम करता है। ग्रेगेरिन कैलेंडर की समझ वैसे भी हमें मौसम की कल्पनाओं से कहीं दूर कर चुकी है, फ़िर भी शायद ये अंतिम पीढ़ी है जिसने इसे जाना- पढ़ा है कि आषाढ़ का पहला दिन ही हमारी लोक यादों में बसा हुआ था....
★★मोहन राकेश के "आषाढ़ का एक दिन" उपन्यास की नायिका #मल्लिका कहती है,"....#आषाढ़ का पहला दिन और ऐसी वर्षा, माँ !...ऐसी धारासार वर्षा ! दूर-दूर तक की उपत्यकाएँ भीग गईं।...और मैं भी तो ! देखो न माँ, कैसी भीग गई हूँ !" मोहन राकेश के शब्दों में महाकवि #कालिदास की परिकल्पना से इतर इस बरस आषाढ़ बीतने तक भी बारिश को उत्तरी भारत तरस गया।
कालिदास के 'मेघदूतम्' का पहला श्लोक ही आषाढ़ के स्मरण के साथ है ’आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानु वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।
(आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की चोटी पर झुके हुए मेघ को विरही यक्ष ने देखा तो उसे ऐसा लगा मानो क्रीड़ा में मगन कोई हाथी हो।)
संस्कृत कवियों के अनुसार प्रेम की तमाम स्थितियों को #वर्षा #उदीप्त करती है। ये वर्षा #उत्प्रेरक एजेंट की तरह होती है। आषाढ़ का माहौल बाधा, संकोच और वर्जनाएं तोड़ता है।
सामान्य अनुभव है, जेठ और सावन के मध्य ये महीना तपन, उमस और बरस तीनों को एक साथ महसूस कराता है। और, यही अनेक प्रकार के भावों को निर्मित करता है। "चंद्रमा मनसो जातः" ; वैदिक ज्योतिष में #चंद्रमा को #मन का कारक माना जाता है, चंद्रमा के प्रभाव से ही जातक मन विचलित व स्थिर होता है। चन्द्र आधारित पंचाग में तय किये महीने #मन के #भाव के #निर्धारक हैं। भारत में प्रचलित चंद्रसौर प्रकृति पंचांग में बारह मासों के नाम आकाशमण्डल के नक्षत्रों में से 12 नक्षत्रों के नामों पर रखे गये हैं।
आज मानसून को जून महीने की तारीख़ से अनुमान किया जाता है, इसमें होने वाली देरी के कारणों को मौसम विज्ञान विभाग Scientific Methods से चिन्हित करता है, लेकिन लोकमन अपने तरीके से मौसम का अनुमान लगाता रहा है, जिसमें किसानों की जिह्वा पर मौजूद कृषि पंडित #घाघ की पंक्तियां स्मृत होती है:
◆"दिन के बद्दर, रात निबद्दर,
बहे पुरवाई झब्बर-झब्बर,
कहैं #घाघ कुछ होनी होई,
कुआं खोदि के धोबी धोई।"◆
बहरहाल #मौसम_विज्ञान की प्रगति ने इसके पूर्वानुमानों को अधिक विशुद्ध करने का प्रयास किया, जिसके परिणामस्वरूप खेती-किसानी में भी सतर्कता तो आई फ़िर भी 'बिन पानी सब सून'! भूजल से सिंचाई की अपनी सीमाएं हैं। पानी की कमीं भोजन की राह को भी कठिन कर देने लगी है, तो हमें वर्षा जल के संरक्षण और भूजल को बचाने की जरूरत आ पड़ी है। 'न खेती करब, न बदरे क मुँह देखब' कहावत से काम लंबे तक चलता नहीं।
भूजल और मौसम बचाने को अब नए #trick अपनाने पड़ेंगे, तभी पानी बचेगा। ये #गहन चर्चा का विषय है, लेकिन हमें तो डरा रहा है:: #पानी! गिरता भूजल, वर्षा ऋतु में आकस्मिक बदलाव, एक दिन वनस्पतियों फिर उनपर आश्रित जीवों को नष्ट करेगा, जिसका अगला शिकार खुद #मानव जाति होगी।
सामान्य जनों में चर्चा है कि #पूर्वांचल सूखे में बुंदेलखंड होने जा रहा। जानकर कहते हैं कि #बुंदेलखंड अभी जो कुछ बचा है वो #चंदेल_राजाओं की वज़ह से! जल संरक्षण की उनकी मूल भावना की ओर मुड़ना होगा। उनके योगदान को इस प्रसंग से समझ सकते हैं:- "बुंदेलखंड नरेश #छत्रसाल के पुत्र जगतराज ने एक बीजक के मुताबिक खुदाई करवाकर गड़ा धन प्राप्त किया तो छत्रसाल नाराज हुए। उन्होंने कहा, ★''मृतक द्रव्य चंदेल को, तुम क्यों लिया उखार"★। अगर उखाड़ ही लिया है, तो उससे चंदेलों के बने #तालाबों की मरम्मत की जाये और नये तालाब बनवाये जायें। इसी धन से पुराने तालाबों की मरम्मत के साथ वंशवृक्ष देखकर संवत 286 से 1162 तक की 22 पीढियों के नाम पर पूरे बाइस बड़े-बड़े तालाब बनवाये गये। दुरावस्था में ही सही, लेकिन इनका अस्तित्व अभी भी बुंदेलखंड में मौजूद है।
वैसे हमने तो पूर्वांचल के तमाम गाँवों समेत #गोरखपुर में ताल सिमटने और तालाबों के लुप्त होते की कहानियां सुनी है और अब जब अपनी जान पर बन आई है, तो उसे बचाने की सोंच रहे हैं।
*लेखक:असिस्टेंट प्रोफेसर, समाजशास्त्र विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर
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