पतहर

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हिंदी के लब्धकीर्ति : सतीश राय 'अंजान'

वे अपने सर्जनात्मक अभिव्यक्ति में जितने ही सहज और अन्तरभेदी हैं। प्रवाहमयता में उतने ही प्रगाढ़, सार्वकालिक और सार्वदेशिक भी। कर्म, ज्ञान और शक्ति का अद्भुत समन्वय उनके व्यक्तित्व में है।वे एक कुशल प्रशासक भी हैं और कर्तव्यनिष्ठ अभिभावक भी।साहित्यिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर वे अपनी वैदुषिक सज्जा के साथ चुनौतियों से टकराते हैं।भारतीय रचनात्मकता और परंपरा-आधुनिकता के बीच समन्वय बनाते हुए वे हर प्रकार की चुनौतियों का सामना करते हैं तथा उन सबका हल अपने चिंतन में ढूंढ ही लेते हैं।

* डॉ. सतीश कुमार राय 'अंजान' के जन्मदिन 27 मई पर विशेष

प्रस्तुति: डॉ. संदीप कुमार सिंह

आज मेरे पास शब्द कम पड़ गए हैं क्योंकि जब व्यक्तित्व असाधारण हो तो उसे शब्दों में कैद कर पाना कभी - कभी असंभव और कठिन होता है । हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति समर्पित रहने वाले पूज्य गुरुवर डॉ. सतीश कुमार राय 'अंजान' का आज (27 मई) जन्मदिन है । वे एक कुशल अध्यापक, प्रकांड पांडित्य से युक्त व्यक्तित्व, शोधी विद्वान, संपादन प्रवीण, प्रभावी वक्ता, भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीयता के प्रबल पोषक तथा प्रखर प्रतिभा संपन्न साहित्यकार, आलोचक हैं । उनकी सृजनधर्मिता में लोक मानस का प्रतिबिंब भाष्वर हो उठता है । उनका फलक बहुत व्यापक और दृष्टि बहुआयामी है । वे अपनी जड़ों से जुड़े रहने वाले समर्थ रचनाकार हैं । उनकी प्रखर मेधा भारतीय चिंतन परंपरा से जुड़कर रूढ़िवाद और जड़ता पर कठोर प्रहार करती है । वे नवीन मेधा को संस्कारित करते हुए उसे एक नई दिशा देने के लिए अग्रसर रहते हैं । उनका वैदुष्य और स्नेहिल व्यक्तित्व लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है । वे 'हिंदी सेवियों' को 'एक परिवार' मानते हैं । उनके विराट आभामंडल और ज्ञान गरिमा के अभूतपूर्व सम्मिलन से युक्त व्यक्तित्व के समक्ष बैठा व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । मुझे याद है वह पहला दिन जब मैं उनसे मिला था । उनके कमरे के बाहर लगे सूचनात्मक पट्टिका को पढ़कर मैं मन ही मन हर्षित हो रहा था क्योंकि वे भी अपने अध्ययनकाल में 'लब्ध स्वर्णपदक विजेता' रह चुके हैं । मैं मन ही मन हर्षित और मुदित होता हुआ उनके कमरे में पहुँचा । मेरा परिचय जानकर वे बहुत हर्षित हुए । बहुत सारी बातें हुईं । अपने परिवार के अभिन्न सदस्य के रूप में उन्होंने मुझे स्नेह और मान दिया तथा आज भी मेरी सुख - सुविधाओं का पूरा ख्याल रखते हैं । मुझे उनके व्यक्तित्व में मेधा और प्रज्ञा का अद्भुत समन्वय दिखाई पड़ता है । उनकी सर्जनात्मक अभिव्यक्ति और आलोचनात्मक अभिक्षमता उनकी रचनाओं में दृष्टिगोचर होती है । 'लोक' और 'साहित्य' के प्रति उनके मन का आकर्षण उन्हें आलोचनात्मक काव्यात्मकता की भावभूमि पर प्रतिष्ठित करता है । वे अपने सर्जनात्मक अभिव्यक्ति में जितने ही सहज और अन्तरभेदी हैं प्रवाहमयता में उतने ही प्रगाढ़, सार्वकालिक और सार्वदेशिक भी । कर्म, ज्ञान और शक्ति का अद्भुत समन्वय उनके व्यक्तित्व में है । वे एक कुशल प्रशासक भी हैं और कर्तव्यनिष्ठ अभिभावक भी ।


साहित्यिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर वे अपनी वैदुषिक सज्जा के साथ चुनौतियों से टकराते हैं । भारतीय रचनात्मकता और परंपरा-आधुनिकता के बीच समन्वय बनाते हुए वे हर प्रकार की चुनौतियों का सामना करते हैं तथा उन सबका हल अपने चिंतन में ढूंढ ही लेते हैं । चंपारण की हिंदी पत्रकारिता को लेकर उनका बड़ा साहित्यिक अवदान है । उनका व्यक्तित्व सहज, सरल है । वे उदारमना और स्नेह की प्रतिमूर्ति हैं । उनका मानवीय पक्ष अत्यंत व्यापक और सराहनीय है, उनके व्यवहार में सरलता उनकी सौम्यता से झलकती है । उनमें अद्भुत वक्तृत्व कला है और आवाज़ बिल्कुल गुरु-गंभीर । वे अपनी साहित्यिकता और सहजता से लब्धकीर्ति हैं । लेखन, मनन और गतिशीलता तो बेजोड़ है ही अनेक प्रशासनिक दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन करते हुए वे सृजनरत रहते हैं । स्वभाव से मृदु और अनुशासन में कठोरता का गुण उन्हें लोकप्रिय बनाता है । उनका आलोचनात्मक सृजन नए लेखकों को अनुशासित करता है । वे साहित्य के अनन्य उपासक, चिंतक और विचारक के रूप में अपने समकालीनों के बीच अग्रिम पंक्ति के अधिकारी हैं । उन्होंने भारतीय जीवन-दर्शन का मंथन करते हुए साहित्य और समाज के लिए जो नवनीत निकाला वह पाठकों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । पश्चिमी चंपारण की हिंदी पत्रकारिता, एकांकीकार भुवनेश्वर का यथार्थ बोध, पत्रकार प्रेमचंद, गोपाल सिंह नेपाली आदि आलोचनात्मक कृतियाँ उनके प्रखर आलोचक व्यक्तित्व को प्रकट करती हैं । वे अपनी रचनाओं में जीवन मूल्यों के सातत्त्व की संपूर्णता को परखते चलते हैं । करणीय-अकरणीय में भेद वे अपनी सहज और प्रतियुतपन्नमति बुद्धि से कर लेते हैं । उनका मानना है कि सकारात्मक चिंतन से व्यक्ति समाजोन्मुखी बनता है । अपनी रचनाओं के साथ ही साथ वे अपने व्याख्यानों में भी साहित्य, समाज और राजनीति के बीच सामरस्य पर बल देते हैं जिससे उनके लेखन की प्रयोजनमूलकता भी स्वंय सिद्ध हो जाती है ।
उनकी आलोचना में कृति महत्त्वपूर्ण होती है कृतिकार नहीं इसलिए अपनी स्थापना में वे बिल्कुल तटस्थ रहते हैं।उनकी कृतियों के अध्ययन में रागानुगा प्रीति का आस्वाद मिलता है जिससे आनंदित होकर पाठक आद्यंत रचना के साथ बना रहता है । उनके शब्द-भाव आदि आनंदोत्सव के रूप में दिखाई पड़ते हैं बिल्कुल सहज, सरल और रोचकता से भरपूर । उनकी भाषा उनके भावों की नियामक है । विचारोत्तेजना और रचनात्मक ताजगी से युक्त उनकी आलोचना भाषा के नवीन गवाक्ष खोलती है । सनसनीखेज वैचारिक एकरसता उन्हें बिल्कुल नहीं भाती इसलिए वे साहित्य को साहित्य की तरह जीते हैं न कि नारे और गैंगबाजी के रूप में । वे काव्य या रचना की सुंदरता उसके भावों और भाषा में देखते हैं इसलिए उनका लेखन लोकप्रिय हो जाता है।

(लेखक भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय  मुज़फ़्फ़रपुर में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। 
संपर्क : 8765231081)