पतहर

पतहर

प्यारा ज़िंदादिल इंसान और खूबसूरत शायर

प्रो अनिल राय
बल्ली सिंह चीमा, ग़ज़लेमुसल्सल और पुस्तक
*प्रो.अनिल राय
इस मुश्किल दौर की ' ख़ामोशी के खिलाफ'  अपनी खुद की 'ज़मीन से उठती हुई आवाज़' में  ख़तरों से आगाह करते हुए  हमें हमारी ज़िम्मेदारी बताने वाले जनकवि बल्ली सिंह चीमा को मैंने  कई साल पहले जनसंस्कृति मंच के गोरखपुर के अधिवेशन में देखा था । दो-तीन दिनों तक लगातार थोड़े करीब से  देखते हुए  मैंने अनुभव किया था कि बल्ली सिंह चीमा के मायने होता है ---- एक प्यारा  ज़िंदादिल इंसान और खूबसूरत शायर ।
चीमा की ग़ज़ल है , तो आप यक़ीन कर सकते हैं कि उसमें ज़िन्दगी और उसके संघर्षों की भरपूर आग होगी और वह मौत के सामने खड़े , लड़ते - हारते , मरते - जीते इंसान की प्रतिनिधि आवाज़ बनकर आप सबको पुकार रही होगी । 

' ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के /
 अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के ' 
 अपनी इस बहुचर्चित ग़ज़ल  को जब चीमा खुद पढ़ रहे होते हैं , तो  सुनने वाले अनुभव करेंगे कि वह खुद मशाल लेकर चलते हुए  गांव के लोग  में तब्दील हो चुके होते हैं । कवि और जन के बीच की इस अटूट आवाजाही के भीतर से ही शायद कोई जनकवि पैदा होता है --- चीमा की  शख़्सियत इस बात की ओर  एक मानीखेज  इशारा करती जान पड़ती है ।
ग़ज़लें लिखने वाले और सुनाने वाले  तो  बहुत हैं । पर  ग़ज़लों  के  कथ्य के भीतर  मौजूद  संघर्षशील चरित्र  का रूपक बन जाना हर शायर की तकदीर नहीं । चीमा के मुंह से उनकी  ग़ज़लों को  सुनना अपने समय के अंधेरे के विरुद्ध संगठित हो रहे किसी आंदोलन में शामिल होने  का अहसास भरते  जाना  है । जन - संघर्ष और प्रतिरोध की कविता में दिलचस्पी रखने वालों के बीच इसीलिए  चीमा ने अपार प्रशंसाएं बटोरी हैं।
बल्ली सिंह चीमा
चीमा मेरे साथ पहली बार कल  फ़ोन पर थे। वे एक लेख में छपे  मुसल्सल ग़ज़ल सम्बन्धी मेरे एक विचार के प्रति अपनी  सहमति प्रकट करना चाह रहे थे । वह कह रहे थे कि आज के  ग़ज़लकार को हिंदी कविता से सीखना चाहिए और एक विषय पर केन्द्रित शेरों के समुच्चय वाली ग़ज़लें लिखने से परहेज़ नहीं करना चाहिए ।  उनका मानना था कि इस तरह एक कथ्य के विस्तार में प्रवेश कर उसके बहुत सारे पक्षों  तक की यात्रा की जा सकती है, जो स्वतंत्र शेरों वाली गैरमुसल्सल ग़ज़लों से सम्भव नहीं होती ।
बल्ली सिंह चीमा ने  मेरे आग्रह पर अपनी एक मुसलसल ग़ज़ल  सुनाई । यह उनके जाने-पहचाने  तेवर वाली ग़ज़ल तो नहीं है . पर 
 अभी 23 अप्रैल --- विश्व पुस्तक दिवस को गुज़रे एक हफ्ता ही  हुआ है ।  इस अवसर से जोड़कर भी  इन  शेरों को  देखने  का प्रस्ताव  किया  जा सकता है   -----

              साल बीता बन - संवर मेले में आयीं पुस्तकें 
              पाठकों  की  भीड़  देखीं   मुस्कराईं पुस्तकें 
              
               आशिक़ी करते  हैं  मेले में  बहुत से नौजवां
               प्यार  हमसे  भी करो  ये  बुदबुदाईं  पुस्तकें 

               थोक में मालिक ने बेचा है हमें  सरकार को 
               कैद  शीशे  में  हुईं  तो  खदबदाईं   पुस्तकें 

               मिल गया मेले में सबको चाहने वाला कोई
               दे  रही  थीं   एक-दूजे  को  बधाई  पुस्तकें 

           पाठकों से मिलके बोलीं मिल गयी मंजिल हमें
             शुक्रिया  'बल्ली' ये कहकर मुस्कराईं पुस्तकें

*संप्रति: हिन्दी विभागाध्यक्ष, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर.