सौ साल पुरानी समस्या पर अगर हम आज भी चर्चा कर रहे हैं तो हम कहाँ विकसित हुए हैं। जासूसी और ऐयारी उपन्यासों से आगे बढ़कर प्रेमचंद ने हाशिए की अस्मिताओं की समस्याओं को उठाया। वे स्त्री केंद्रित साहित्य के प्रादुर्भाव की नींव रखते हैं। क्या हम साहित्य के मूल्यांकन के लिए उन्ही पुराने मानदंडों का प्रयोग करेंगे? क्या प्रेमचंद हमारे समय को पकड़ पाए?
राजू मौर्या,पतहर प्रतिनिधि, गोरखपुर।प्रेमचंद साहित्य संस्थान, गोरखपुर, साखी पत्रिका और हिंदी विभाग दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर के सहयोग से संवाद भवन में ' सौ साल बाद सेवासदन : स्त्री मुक्ति का भारतीय पाठ ' विषय पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घटान हुआ।
कार्यक्रम का आरम्भ विश्वविद्यालय के कुलगीत के गायन से हुआ। स्वागत वक्तव्य देते हुए हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. अनिल कुमार राय ने कहा कि यह बहुप्रतीक्षित संगोष्ठी हो रही है। उन्होंने इस गोष्ठी के विशेष सहयोग के लिए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. विजय कृष्ण सिंह के प्रति आभार व्यक्त किया तथा सभागार में उपस्थित बौद्धिक नागरिकों, विश्वविद्यालय प्रशासन के अधिकारियों और विभिन्न महाविद्यालयों के प्राचार्यों ,छात्रों तथा कई राज्यों से आये हुए प्रतिभागियों का स्वागत किया।
संयोजकीय वक्तव्य देते हुए प्रो. सदानंद शाही ने कहा कि सेवासदन पर संगोष्ठी करना गौरवशाली स्मृति को याद करना है। जीवन में सहजता का आख्यान ही साहित्य है। जब जब सामाजिक ताना- बाना उखड़ता है तो साहित्य उसको फिर से बुनता है। प्रेमचंद के साहित्य में गोरखपुर की छाप है। इसलिए यह गोरखपुर का दायित्व है कि वह प्रेमचंद को याद करे। प्रेमचंद ने सौ वर्ष पहले जो आवाज उठाई थी- स्त्री का प्रश्न ,वह एक सभ्यतामूलक प्रश्न है। इस संगोष्ठी के माध्यम से हम देखेंगे कि इस मामले में हम कितना आगे बढ़े हैं।
उद्घाटन सत्र की मुख्य अतिथि प्रसिद्ध कथा आलोचक प्रो. रोहिणी अग्रवाल ने अपने वक्तव्य में कहा कि सेवासदन में सुमन का जीवन तो प्रेमचंद दिखाते हैं लेकिन मैं तो इक्कीसवीं सदी में भी सुमन को देख रही हूँ। स्त्रियाँ सिर्फ पानी है ... पानी को जिंदा रहने के लिए पानी की जरुरत होती है। हमारी समस्या यह है कि हमने तुलना करने के लिए पुरुषों को ही मानक बनाया है। प्रेमचंद ने 'सेवासदन' में स्त्री प्रश्न को उठाया तो क्या इसी कारण मैं उनकी प्रशंसा करूँ। सौ साल पुरानी समस्या पर अगर हम आज भी चर्चा कर रहे हैं तो हम कहाँ विकसित हुए हैं। जासूसी और ऐयारी उपन्यासों से आगे बढ़कर प्रेमचंद ने हाशिए की अस्मिताओं की समस्याओं को उठाया। वे स्त्री केंद्रित साहित्य के प्रादुर्भाव की नींव रखते हैं। क्या हम साहित्य के मूल्यांकन के लिए उन्ही पुराने मानदंडों का प्रयोग करेंगे? क्या प्रेमचंद हमारे समय को पकड़ पाए? सेवासदन में पात्र अपने इवोलुशन लेते हैं।सभी चरित्र औसत दर्जे के हैं। ये सभी पात्र अपने चारित्रिक दोष के साथ आये हैं। हमारा आरंभिक साहित्य स्त्रियों को नहीं बल्कि उनकी छवियों या प्रतिमाओं को गढ़ रहा था। प्रेमचंद इन पात्रों के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि हम अपना जीवन औसत दर्जे से शुरू करते हैं। यह वेश्या उद्धार की समस्या को केंद्र में रखने वाला उपन्यास है। उन्होंने स्त्रियों को घर के परदे से बाहर निकालकर उनकी समस्याओं को साहित्य का विषय बनाया।
इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. रामदेव शुक्ल ने कहा कि प्रेमचंद ने पहले उर्दू साहित्य और बाद में हिंदी साहित्य को जो ऊंचाई दी उसकी ऊर्जा गोरखपुर से ही मिली। मैं नहीं मानता कि सेवासदन वेश्या जीवन का उपन्यास है। हमारा यह दुनिया का अकेला देश है जहां यह माना जाता है कि पति परमेश्वर है और वहां स्त्री दासी ही हो सकती है। प्रेमचंद इस धारणा को तोड़ते है। उन्होंने कहा कि स्त्री तो मुक्त है ही पुरुषों को अपनी वर्जनाओं और कुंठाओं से मुक्त होना चाहिए।
विश्वविद्यालय के संवाद में आयोजित कार्यक्रम का पहला दिन संपन्न हुआ । जिसमें देश व विदेश से आए कई विद्वानों ने स्त्री मुक्ति के संदर्भ में अपनी बातें रखी। इस कार्यक्रम में गोरखपुर विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर अनिल कुमार राय जी, बीएचयू हिंदी विभाग से प्रोफेसर सदानंद शाही जी, दिल्ली विश्वविद्यालय हिंदी विभाग से प्रोफेसर सुधा सिंह जी, प्रोफेसर रोहिणी अग्रवाल जी रोहतक से प्रोफेसर संध्या सिंह सिंगापुर से और डॉ रसांगी नायकार जी श्रीलंका से अपने वक्तव्य दिए।
कार्यक्रम में छात्र-छात्राओं शोधार्थियों शिक्षकों बुद्धिजीवियों सहित शहरों के तमाम गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति रही।
उद्घटान सत्र में धन्यवाद ज्ञापन प्रेमचंद साहित्य संस्थान के सचिव मनोज कुमार सिंह ने किया।
कार्यक्रम में छात्र-छात्राओं शोधार्थियों शिक्षकों बुद्धिजीवियों सहित शहरों के तमाम गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति रही।
उद्घटान सत्र में धन्यवाद ज्ञापन प्रेमचंद साहित्य संस्थान के सचिव मनोज कुमार सिंह ने किया।
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